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जनसंख्या नियत्रणः हिन्दू बनाम मुस्लिम आबादी

देश में तीन तलाक की समाप्ति, जम्मू काश्मीर में धारा 35ए एवं आर्टिकिल 370 की समाप्ति, नागरिकता संसोधन कानून लागू करने और श्रीराम मंदिर निर्माण का पथ प्रशस्त करने के पश्चात मोदी सरकार की प्राथमिकता क्या होनी चाहिए? निश्चित रूप से देश के बहुत से प्रबुद्ध एवं जिम्मेदार लोगो की राय में प्राथमिकता होनी चाहिए- देश में जनसंख्या नियंत्रण। सच्चाई यह है कि विश्व में सबसे ज्यादा जनसंख्या वाले देश चीन को भी 2027 तक में हम पीछे छोड़कर नम्बर 1 में आ जायेंगे। वेसे भी वर्तमान में जहां भारत की आबादी 1 अरब 36 करोड़ है वहीं चीन की आबादी मात्र 6 करोड़ ज्यादा 1 अरब 42 करोड़ है। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि फिलहाल चीन की आबादी भले ही ज्यादा हो लेकिन वहां जमीन की उपलब्धता प्रति व्यक्ति भारत से ज्यादा है। जितनी जमीन भारत के 4 नागरिकों के पास है, उतनी जमीन चीन में 1 नागरिक के पास है। भौगोलिक दृष्टि से भारत चीन का एक तिहाई है, लेकिन उसकी जनसंख्या चीन के मुकाबले तीन गुना ज्यादा दर से बढ़ रही है।

स्थिति यह है कि यदि भारत ने जनसंख्या वृद्धि रोकने की दिशा में ठोस एवं सख्त कदम नहीं उठाये तो बढ़ती आबादी देश में कई चुनौतियां प्रस्तुत करेंगी। अगले 40 वर्षाें में भारत के समक्ष अपने नागरिकों को रोजगार, ऊर्जा, आवास, आधारभूत संरचना के साथ पानी तक उपलब्ध कराने की जटिल समस्या होगी।

2050 भारत में शहरी जनसंख्या में 49 करोड़ 70 लाख की वृद्धि होगी। आज भारत में प्रदूषण एवं जलवायु परिवर्तन को लेकर बड़ी-बड़ी बाते हो रही हैं, पर हमे यह समझना होगा कि जनसंख्या वृद्धि भी जलवायु परिवर्तन को प्रभावित कर रही है। आबादी बढ़ने से प्राकृतिक संसाधनों का दोहन भी बढ़ता है जिससे प्रदूषण जैसी समस्याएं भी बढ़ती हैं। आज लोगो यह समझाने की जरूरत है कि जनसंख्या वृद्धि देश के लिये घातक तो है ही, स्वतः उनके लिये भी समस्याएं बढ़ाने वाला है।

देश की आबादी में प्रत्येक वर्ष 80 लाख की दस से बढ़ोत्तरी हो रही है। बढ़ती आवादी के चलते कृषि योग्य भूमि आवासीय जरूरतों की पूर्ति हेतु दिनोंदिन घटती जा रही है। झील, तालाब, बावड़ी, कुओं का अतिक्रमण के चलते नामोनिशान मिटता जा रहा है। प्रवल आशंका है कि तापमान में बढ़ोत्तरी आने वाले दिनों में अपने चरम पर जा पहुंचेगी, जिसके चलते धु्रवों की वर्फ तेजी से पिघल जायेगी और समुद्र का जल स्तर बढ़ जायेगा। इसके चलते एक अरब प्रजातियों में करीब 20 करोड़ प्रजातियां लुप्त हो जायेगी। देश में जनसंख्या नियंत्रण नीतियों का दुखद परिणाम ही है कि सदी के अन्त तक भारत की आबादी का आकड़ा 150 करोड़ हो जायेगा।

भारत में 90% दम्पत्ति ‘हम दो- हमारे दो’ सिद्धान्त का पालन नहीं कर रहे हैं, जिसके चलते बढ़ती आबादी हमारे आधे से ज्यादा समस्याओं का मूल कारण बन गई है। इसी के चलते हम दुनिया के हिसाब से भूँख के मामले में 103वें क्रम पर हैं। साक्षरता के मामले में 168वें क्रम पर हैं। हैपीनेस अर्थात खुशहाली के मामले में हम 125वें नम्बर पर हैं। न्यूनतम मजदूरी पाना पत्येक नागरिक का अधिकार है, पर यहां भी हम 124वें नम्बर पर हैं। पर व्यक्ति जी.डी.पी. के मामले में 139वें नम्बर पर तो वित्तीय प्रगति के मामले में 51वें नम्बर पर हैं। दुर्भाग्य से भूतल में स्थित जल के अपव्यय के मामले में पूरी दुनिया में हम नम्बर एक पर हैं। यह स्थिति तब है जब हमारे पास दुनिया के मुकाबले 4% जल ही है, और 2% कृषि भूमि पर ही हमारा अधिकार है। जनसंख्या विस्फोट हमारे लिये बम विस्फोट से भी बड़ी समस्या बन गई है। जनसंख्या नियंत्रण के वगैर एक स्वस्थ्य, शिक्षित, समृद्ध और महान भारत का निर्माण हो सकना सम्भव ही नहीं है।

2011 की जनसंख्या के हिसाब से भारत में गरीबी रेखा से जीने वाले लोगो की संख्या 50 प्रतिशत थी। यह एक विकट समस्या है कि भारत में प्रति वर्ग किलोमीटर में 404 लोग रहते हैं, जबकि पूरे विश्व में प्रति किलोमीटर पर अनुपात 51 का है। यहां तक की चीन जैसे सबसे ज्यादा जनसंख्या वाले राष्ट्र में भी प्रति किलोमीटर में 144 लोग ही रहते हैं। दिनों-दिन जनसंख्या बढ़ने से हमारे प्राकृतिक संसाधन बुरी तरह प्रभावित हो रहे हैं। स्थिति यह है कि बढ़ती जनसंख्या के चलते न तो सांस लेने के लिये हमे स्वच्छ हवा मिल रही है, न पीने को साफ पानी मिल रहा है। कहने को तो भारत एक कृषि प्रधान देश है, पर कृषि भूमि जहाँ एक ओर दिनो-दिन घटती जा रही है, वहीं रसायनों के प्रयोग के चलते उसकी उर्वरा शक्ति भी कम होती जा रही है। सिर्फ यदि कोई चीज बढ़ रही है तो वह जनसंख्या है, जिसके चलते तेजी से बेरोजगारी, गरीबी, भूख, खाद्य पदार्थाे में मिलावट, स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याएं, अपराध और अनैतिकता का विस्तार हो रहा है। ऐसा भी नहीं कहा जा सकता कि लोगों में जागरूकता का पूरी तरह से अभाव है। 1965 में जहाँ 13% विवाहित महिलाएं ही गर्भ निरोधक उपायों का सहारा लेंती थीं वहीं अब उनकी संख्या 48 प्रतिशत तक बढ़ गई है। प्रजनन दर भी 5.7% से घटकर 2012 तक 2.4% तक आ गई है। लेकिन राष्ट्रीय प्रजनन दर अब भी बहुत ज्यादा है, क्योंकि देश की जनसंख्या में प्रत्येक वर्ष 1 करोड़ 75 लाख लोग जुड़ जाते हैं। ऐसी स्थिति में अब वक्त आ गया है कि वेंकट चलैया कमीशन की सिफारिशों को बिना देरी किये लागू किया जाए। जैसे 2 बच्चों को फार्मूला- सरकारी नौकरी, सहायता और अनुदान सभी में लागू किया जाए। यहां तक कि इसका उल्लंघन करने पर विधिक अधिकारों को भी वापस लेने में कोई झिझक नहीं होनी चाहिए। उदाहरण के लिये वोट देने का अधिकार, चुनाव लड़ने का अधिकार, सम्पत्ति का अधिकार इत्यादि। वस्तुतः जनसंख्या नियंत्रण नीति पर सरकार को तत्काल कानून बनाकर इस दिशा में युद्ध स्तर पर प्रयास करने की जरूरत है। ब्रिटिश अर्थशास्त्री माल्थस ने प्रिंसिपल आफ पाँपुलेशन में जनसंख्या वृद्धि और इसके प्रभावों की व्याख्या करते हुये कहा है- जनसंख्या दुगुनी रफ्तार से और जीवन के संसाधन सामान्य रफ्तार से बढ़ते हैं, ऐसे में लोगो को भुखमरी और कुपोषण का शिकार होना पड़ता है। माल्थस की गणित एकदम सही भले न हो, पर उसकी सोच सही है। विड़म्बना यह कि 1951 में जहाँ देश की जनसंख्या 36 करोड़ 10 लाख थी वहीं 2011 की जनगणना के अनुसार 1 करोड़ 21 लाख हो गई है।

देश की जनसंख्या बढ़ने के कारकों में अज्ञानता, उदासीनता और लापरवाही एक बड़ा कारक तो है ही। यह जनसंख्या विस्फोट भी दो स्तरों का है- एक तो सामान्य तौर से बढ़ती जनसंख्या, दूसरी देश में हिन्दुओं के अनुपात में बढ़ती मुस्लिम जनसंख्या। हकीकत यही है कि वोट बैंक की राजनीति के चलते परिवार नियोजन सम्बन्धी नीतियों को सख्ती से नहीं लागू किया गया। इसके अलावा मुस्लिम जनसंख्या सोद्येश्य जिस ढंग से बढ़ाई जा रही है वह भी देश के लोकतंत्र और पहचान के लिये एक बड़ा खतरा है।

1947 में देश के विभाजन के बाद देश में 9% मुस्लिम आवादी थी जो वर्तमान में 14% से ज्यादा हो चुकी है। निःसंदेह इसके पीछे जहां हिन्दुओं और अन्य की तुलना में मुस्लिमों में प्रजनन दर ज्यादा है, वहीं बांग्लादेशी घुसपैठ एक बड़ा कारण है। जिसके चलते असम के सीमावर्ती 8 जिले मुस्लिम बहुल हो चुके हैं। 2011 की जनगणना के अनुसार असम में मुस्लिम जनसंख्या 34% तक पहुंच गई है। पश्चिम बंगाल में भी मुस्लिम जनसंख्या 30%  तक जा चुकी है और यहां के भी कुछ सीमावर्ती जिले मुस्मिल बहुल हो चुके हैं। स्थिति यह है कि ऐसी जगहों में हिन्दू अत्याचार के शिकार हैं और अपने घर-जमीन औने-पौने दामों में बेंचकर भाग रहे हैं। फ्रेंच इतिहासकार आगस्टस कोने ने कहा था- ‘जातियों की जनसंख्या राष्ट्रों की नियति होती है’। कभी अफगानिस्तान भी हिन्दू बहुल था, पाकिस्तान में भी हिन्दुओं की प्रभावी आवादी थी पर आज इन जगहों में नाम मात्र के हिन्दू बचे हैं। अपने देश में अपनी ही गलतियों के चलते कश्मीर घाटी हिन्दू विहीन हो चली है।

इन्ही संदर्भाे में जनसंख्या नियंत्रण को प्राथमिकता देने के सन्दर्भ में पूज्य सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत भी विजयादशमी के दिन अपने उद्बोधन में कह चुके हैं, कि जनसंख्या पर सरकार को समग्र रूप से नीति बनाने की जरूरत और उसे सब पर समान रूप से लागू करने की जरूरत है। गत दिनों प्रयागराज में हुई राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की कार्यकारी मण्डल की बैठक में भी संघ के सरकार्यवाहक श्री दत्तात्रेय जी होसबाले ने एक प्रेस काफ्रेंस में कहा- ‘‘संघ की दृष्टि में जनसंख्या का असंतुलन एवं नियंत्रण दोनो पर एक राष्ट्रव्यापी नीति की आवश्यकता है। संघ द्वारा इस अवसर पर धर्मान्तरण और घुसपैठ से पैदा हो रहे खतरे को भी स्पष्टता से रेखांकित किया गया। परन्तु विडम्बना यह कि इस मामले में वोट बैंक की राजनीति में अपनी दृष्टि खो चुके तथाकथित, धर्मनिरपेक्ष राजनीतिज्ञ जनसंख्या नियंत्रण जैसे मुद्दे का समर्थन तो दूर उसके विरोध पर उतारू हैं। ओवैसी जैसे विशुद्ध रूप से मुस्लिम साम्प्रदायिकता की राजनीति करने वाले राजनीतिज्ञ तो कुतर्क करते हुये कहते हैं, जब हिन्दुओं और मुसलमानों का डीएनए एक है तो असंतुलन कहाँ? डीएनए की बात तो पूरी तरह प्रमाणित है, पर यदि उस डीएनए के आधार पर ओवैसी जैसे राजनीतिज्ञ हिन्दू मुस्लिम को एक यदि मानते तो पूरी राष्ट्र की सर्वाेच्च प्राथमिकता जनसंख्या नियंत्रण का क्यों विरोध कर रहे हैं।

ओवैसी का एक दूसरा तर्क यह है कि मुसलमानों ने भी जनसंख्या दर को नियंत्रित कर लिया है। पर यह आधा सच है, जो झूठ से ज्यादा खतरनाक होता है। बड़ा सवाल यह कि हिन्दुओं की तुलना में मुस्लिम में अब भी जनसंख्या दर ज्यादा है।

2011 की धार्मिक जनगणना के अनुसार 2001 से 2011 के मध्य हिन्दुओं की आबादी जहाँ 16.76% की दर से बढ़ी तो वहीं मुस्लिम आबादी 24.6% की दर से बढ़ी। यह बात सच है कि मुस्लिमों की 1981-91 में वृद्धि दर 32.88 फीसदी और 1991 में 2001 के मध्य 29.51 फीसदी की दर से बढ़ी थी। इस तरह से मुस्लिम जनसंख्या की दर निश्चित रूप से घट रही है, पर हिन्दुओं की जनसंख्या की दर भी समय के साथ क्रमशः- क्रमशः और घट रही है। विडम्बना यह कि बड़ा मुस्लिम समुदाय अब भी हजरत मोहम्मद की इस बात को मानता है कि औरते अल्लाह की खेती हैं। इसी का परिणाम है कि अकेले असम में पिछले 40 वर्षाें में पाँच गुना से भी ज्यादा बढ़ चुकी हैं।

हिन्दू – मुस्लिम में जहाँ जनसंख्या का असंतुलन ज्यादा हो गया है, वहाँ हिन्दुओं के अस्तित्व पर प्रश्न चिन्ह खड़ा होता जा रही है। उदाहरण के लिये केरल जैसे राज्य में जहाँ हिन्दू आबादी 99 प्रतिशत में 54% पर आ गई है, वहाँ मल्लापुरम, कासरगोड़, कन्नूर और पालगड़ जैसे क्षेत्रों में एक तरह से हिन्दुओं को भय के साये में जीना पड़ता है। बंगाल में तो मुर्शिदाबाद, मालदा और उत्तर दिनाजपुर ऐसे जिले हैं, जहाँ हिन्दू अल्पसंख्यक हो चलने के चलते उन्हें वहा से मारकर भगया जा रहा है और वहां का सास्कृतिक परिदृश्य बदल चुका है। इस सम्बन्ध में हरियाणा के मेवात मण्डल को भी देखा जा सकता है जो देश की राजनधानी दिल्ली से 60 कि.मी. दूर होने के बावजूद यहाँ पर कश्मीर घाटी जैसे हालात हैं। यहाँ के कई जगहों पर हिन्दू भय के चलते अपने बच्चों का नाम मुस्लिम रखने लगे हैं, शादी-व्याह में हिन्दू गा-बजा नहीं सकते, लड़कियों का अपहरण होना आम बात है। कुल मिलाकर इन क्षेत्रों को मिनी पाकिस्तान कहा जा सकता है।

ऐसी ही भयावह परिस्थितियों के चलते प्रधानमंत्री मोदी ने तीन वर्ष पूर्व स्वतंत्रता दिवस पर लालकिले की प्राचीर से जनसंख्या नियंत्रण पर खासा जोर देते हुये उचित ही इसे देशभक्ति की संज्ञा दी थी। जब बढ़ती जनसंख्या राष्ट्र के लिये भयावह विभीषिका बनती जा रही है तो जनसंख्या नियंत्रण के प्रति अपने कर्तव्य का पालन प्रत्येक नागरिक के लिये निश्चित रूप से देशभक्ति का पैमाना है। यद्यपि इसमें भी राजनीति देखने वालों की कमी नहीं है, पर ऐसे लोग राष्ट्र के हितैषी कतई नहीं कहे जा सकते और उनकी देशभक्ति पर संदेह करने की पूरी  जाइश बनती है।

लेखक – वीरेन्द्र सिंह परिहार
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