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श्री गुरूनानक साहिब: प्रकाश दिवस

गुरूनानक भारतीय सभ्यता के एक नये युग के अग्रदूत थे। वे एक महान जागृत आत्मा थे। वे वह सब कुछ देख सकते थे, जो न दूसरे देख सकते थे, न ही सोच सकते थे। मानवजाति के उत्थान के लिये उनके द्वारा दिये गये मार्गदर्शन, एकता, समानता विनम्रता और सेवा के संदेश का विश्व व्यापी असर हुआ। उनका अनुसरण भी हुआ। यही उनके सच्चे ज्ञान का प्रभाव है। नानकजी की शिक्षायें मानवजाति को अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाती है। इतना ही उनके माध्यम से व्यक्ति बड़े-बड़े संकट का सामना करने में सक्षम हो जाता है।

महापुरूषों के जन्म का उद्देश्य भी यही रहता है। उनका नाम केवल नाम ही नहीं रह गया, वह एक सिद्ध मंत्र बन गया। ‘‘जो बोले सो निहाल, जो ‘बो’ ले वो भी निहाल।’’ आचार्य रजनीश कहते हैं। ‘‘जपुजी’’ उनकी पहली भेंट है, परमात्मा से लौटकर। जब व्यक्ति मिटता है, उस समय उसकी आँख के सामने, जो होता है, वही परमात्मा है। परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं, वह निराकार है। उनके द्वारा जो भी कहा गया है, वह एक-एक शब्द बहुमूल्य हैं। हम उनके संदेशों एवं दिये गये उपदेशों के मर्म को समझते हुये इस अमूल्य मानव जीवन के सारतत्व कर्तव्यों का निर्वहन करते चले जायें, इतने से ही परलोक भी सुधरेगा और यह जन्म भी।

गुरूनानकजी महाराज ने अपनी आध्यात्मिक परम्परा में सैद्धांतिक एवं व्यवहारिक दृष्टि से समन्वय पर ध्यान देने की बात कही थी। गुरूग्रन्थ साहिब में कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग का समन्वय स्पष्ट रूप से प्रकाशित हुआ है। भारतीय चिन्तन में ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार करने वालों और न स्वीकार करने वालों दोनों का समावेश है। इस्लाम का अस्तित्व तो केवल 1400 वर्षों पुराना है। क्या इसके पहले एकेश्वर वाद की धारणा भारत में विद्यमान नहीं थी? ‘‘एकम् सद्विप्रा बहुधा वदन्ति’’ -यह तो भारतीय चिन्तन का मूलाधार ही रहा है।

श्री गुरूनानक जी देव का चिन्तन विविध विषयों को अपने में समावेशित किये हुये है, वह अत्यंत व्यापक है। उसमें भक्ति का समर्पण स्पष्टतया दृष्टिगत होता है। उनका जीवन, उनके द्वारा दी गयी शिक्षायें और उनका लेखन कार्य मानव सभ्यता की अमूल्य निधि है। नानक जी कहते हैं ‘‘हम आदमी है, हमारी जिन्दगी एक सांस पर टिकी हुयी है। हमें जीवन जीने की मुहलत मिली हुयी है, कब जाने कहां का मुहूर्त आ जाय? यह पता ही नहीं होता। इसलिये उस समय तक उस परमपिता परमात्मा को याद करते रहना चाहिये। हरि के स्मरण बिना यह जीवन जलकर राख हो ही जाना है। अतः प्रभु परमात्मा ही मानव जीवन का सर्वाधार है।’’

गुरूनानकदेव का दर्शन- चिन्तन चित्त को स्थिर और सत्य की परख कराने वाला है। उनके दर्शन और उनके उपदेशों ने मातृभूमि पर शिकंजा कसने वाले आततायी आक्रांताओं के खिलाफ खड़े होने की शक्ति प्रदान की, साहस प्रदान किया। इस दर्शन ने छोटे-बड़े का भेद-भाव मिटाने का अचूक मंत्र दिया। काबा की ओर पैर रखने की घटना ने उनके गूढ़-दर्शन को सहजता अंधविश्वासों के पर्दे को हटा दिया। यह भी संदेश गया कि ‘‘इस ओंकार में उस परम शक्ति का संकेत निहित है- चाहे राम कहो, चाहे कृष्ण, चाहे अल्लाह – ये तो नाम आदमियों के दिये हुये हैं, लेकिन उसका तो एक ही नाम है, जो हमने नहीं दिया। वह ‘‘ओंकार’’ है।’’

आज से 550 साल पहले श्री गुरूनानक जी देव के अवतरण की घटना भारत के राजनैतिक सामाजिक व आध्यात्मिक जगत के लिये विस्मयकारी चमकते सितारे जैसी थी। उस समय समाज भेदभाव और आडम्बर की दीवारों के बीच विघटित होकर अत्यन्त दुर्बलता की स्थिति में जी रहा था। उस समय किसी अद्भुत महापुरूष के प्रयासों से समाज में चेतना जगाये जाने की आवश्यकता महसूस की जा रही थी। ज्ञान का अपार भण्डार तो चारों ओर बिखरा हुआ था, लेकिन उस पर पर्याप्त प्रकाश डालने की आवश्यकता थी, इस कमी को नानकजी देव के विलक्षण अवतरण से पूरा किया जा सका।

समाज के इसी बिखरे पन का लाभ विदेशी मुगल क्रूर आक्रान्ताओं द्वारा उठाया जाकर प्राचीन धार्मिक मठ-मंदिरों का विनष्टीकरण करते हुये सांस्कृतिक अस्मिता को गहरा आघात पहुंचाया गया था। गुरूनानक जी देव महाराज ने भारतीयों के सुप्त गौरव एवं आत्मबोध के भाव को पुनः जगाने के उद्देश्य से चार लम्बी यात्रायें की। इन्हें उदासी के नाम से जाना जाता है।

आत्मविस्मृत और भेदभाव के दलदल में धँसे भारतीय हिन्दू समाज को जागृत अवस्था में उठ खड़े करने के प्रयासों के अंगर्तत उन्होंने अपने पूरे जीवन काल में लगभग 45 हजार किलोमीटर की यात्रायें करते हुये अपने ओजस्वी प्रवचनों के माध्यम से जनजन को जगाने का अथक प्रयास किया। इन यात्राओं के दौरान उन्होंने सनातन धर्म, बौद्ध, जैन तथा सूफी सन्तों से मिलकर संवाद करते हुये अपने पावन एवं बहुउद्देशीय लक्ष्य को प्राप्त किया। इन्हीं यात्राओं के दौरान मुगल आक्रान्ता बाबर के जुल्मों के खिलाफ भी अलख जगायी।

उन्होंने किसी भी जीव के शोषण को त्यागकर दयाभाव पैदा करने संबंधी उपदेश भी दिये। उन्होंने अपनी ओजस्वी वाणी से इस बात का आग्रह किया कि जीविका का उजार्पन पापकर्म के बिना हो और पुरूषार्थ से अर्जित धन को जरूरत मंद लोगों की भलाई में सदुपयोग किया जाये।

महान सन्त-सद्गुरू नानकदेव जी का अवतरण (वर्तमान पाकिस्तान) तालबन्दी गाँव में एक व्यापारी परिवार में हुआ था। उस समय विदेशी आक्रान्ताओं का जुल्म चरम पर था। महिलाओं के साथ भी अमानवीय व्यवहार हो रहा था। उन्होंने तत्कालीन सन्तों- महात्माओं की वाणी का इन बिखरे हुये समाज को जगाने में उपयोग किया। यही कारण है आज भगत, कबीर, रविदास, परमानन्द, धना, तरलोचन, बावा फारीद, सूरदास, भगत जयदेव, भगत सेन जैसे सन्तों की वाणी जनजन तक पहुँच सकी।

श्री गुरूग्रंथ साहिब अध्यात्मवादी मूल के सन्तों की वाणी का अद्भुत संग्रह है। विश्वभर के मानव समुदायों को सद्भाव और समभाव के सूत्र में पिरोकर रखने की शिक्षाओं- उपदेशों का एक अलौकिक ग्रंथ है। श्री गुरूग्रन्थ साहिब में सिख गुरूओं के अतिरिक्त 15 भक्तों, 11 भटों और 4 गुरूसिखों की वाणियाँ सम्मिलित हैं।

गुरूनानक देव ने समाज में समरसता के लिये प्रयास किये। उन्होंने लिखा- ‘‘जे हाड़ जाणा आखा नहीं। करूणा कथन न जाई।’’ अर्थात् ईश्वर की ज्योति को जान लेने पर भी उसे शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता। ईश्वर को हृदय से अनुभव किया जा सकता है।

आज 21वीं शताब्दी में गुरूनानक जी महाराज की वाणी – उपदेशों की प्रमाणिकता कुछ ज्यादा ही बढ़ गयी है। क्योंकि आज भी साम्प्रदायिकता, नफरत और हिंसा-कटुता की आँधी चल रही है। गुरूनानक जी देव ने स्वयं विरासत छोड़ी है, वह आज भी प्रासंगिक और सार्थक है।

~ डाॅ. किशन कछवाहा