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“सन् 1857 के स्वतंत्रता संग्राम की प्रथम महिला बलिदानी : रानी अवंती बाई लोधी”

सन् 1857 के भारत के स्वतंत्रता संग्राम में संपूर्ण भारत में किसी भी देशी राजघराने से “स्व” के लिए प्रथम महिला बलिदान 20 मार्च 1858 को वीरांगना क्षत्राणी, रानी अवंतीबाई लोधी का रहा है। ऐतिहासिक साक्ष्यों के आलोक में झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई का बलिदान 18 जून 1858 को और बेगम हजरत महल की मृत्यु 7 अप्रैल 1879 को हुई थी। अतः यह स्पष्ट है कि रानी अवंती बाई देश में सन् 1857 के स्वतंत्रता संग्राम की पहली महिला सेनानी थी, जिन्होंने सर्वप्रथम स्वतंत्रता संग्राम में आत्मोत्सर्ग कर अपनी पूर्णाहुति दी।

रानी अवंती बाई, जिला मंडला क्षेत्रांतर्गत रामगढ़ की रानी थी, जो जबलपुर कमिश्नरी के अंतर्गत था। रामगढ़ रियासत के संस्थापक गोंड साम्राज्य के वीर सेनापति मोहन सिंह लोधी थे। रियासत में 681 गांव और सीमाएं अमरकंटक, सुहागपुर, कबीर चौंतरा, घुघरी, भुआ – बिछिया, रामनगर तक थीं।

सन् 1817 से सन् 1851 तक रामगढ़ राज्य के शासक लक्ष्मण सिंह थे। उनके निधन के बाद विक्रमजीत सिंह ने राजगद्दी संभाली उनका विवाह किशोरावस्था में ही मनकेहणी के जमींदार राव जुझार सिंह की रुपसी कन्या अवंतीबाई से हुआ था। विक्रमजीत सिंह बचपन से ही वीतरागी प्रवृत्ति के थे। अतः राज्य के संचालन का काम उनकी पत्नी रानी अवंती बाई ही करती रहीं। उनके दो पुत्र अमान सिंह और शेर सिंह हुए।

अंग्रेजों ने सन् 1818 तक मंडला को हस्तगत कर लिया था अब उनकी कुदृष्टि रामगढ़ की रियासत की ओर थी।

वीरांगना रानी अवंतीबाई का जन्म 16 अगस्त सन् 1831 को ग्राम – मनकेहणी, जिला – सिवनी, के जमींदार राव जुझार सिंह के यहां हुआ था। बाल्यकाल से ही रानी दुर्गावती उनकी आदर्श बन गई थीं। नियति भी साथ दे रही थी, रानी अवंती बाई ने तलवारबाजी और घुड़सवारी में दक्षता प्राप्त कर ली थी।

वीरांगना रानी अवंती बाई ने तत्कालीन समय के जाने-माने मालवा के पिंडारी तलवारबाज कादर बक्श को एकल द्वंद्व युद्ध में पराजित कर दिया था, तभी से उनके शौर्य और साहस के किस्से फैलने लगे थे। इसलिए रामगढ़ रियासत से विवाह का प्रस्ताव आया था और स्वीकृत भी कर लिया गया था। विक्रमजीत वीतरागी थे, इसलिए प्रशासन की बागडोर रानी अवंतीबाई के हाथों में आ गई थी।

रानी के प्रशासकीय सुधारों से लोकप्रियता बढ़ने लगी थी।बरतानिया सरकार को नागवार गुजरा इसलिए राज्य हड़प नीति के अंतर्गत रामगढ़ के राजा विक्रमाजीत सिंह को विक्षिप्त और अमान सिंह तथा शेर सिंह को नाबालिग घोषित कर रामगढ़ राज्य को हड़पने की दृष्टि से अंग्रेजों ने कोर्ट आॅव वार्ड्स की कार्यवाही की।

सन् 1855 में राजा विक्रमजीत का देहावसान हो गया। तदुपरांत रानी अवंतीबाई ने नाबालिग पुत्रों की संरक्षिका बन राज्य संभाला। कृषकों और जनसाधारण को अंग्रेजों के निर्देश ना मानने का आदेश दिया और अनेक सुधार कार्य किए। रानी अवंतीबाई के कृत्यों को बरतानिया सरकार ने गंभीरता से लिया और रामगढ़ राज्य को कोर्ट ऑव वार्ड्स के अंतर्गत कर दिया। यहीं से रानी अवंतीबाई लोधी ने बरतानिया सरकार के विरुद्ध स्वतंत्रता संग्राम का निश्चय किया।

सन् 1857 के भारत के स्वतंत्रता संग्राम में बरतानिया सरकार के विरुद्ध वीरांगना रानी अवंतीबाई का गौरवमयी इतिहास लिखने से पहले मैं यहाँ स्पष्ट कर दूँ कि जिस तरह इतिहास लेखन के दौरान महारथी राजा शंकरशाह और उनके सुपुत्र रघुनाथशाह के साथ अन्याय हुआ है, उससे भी बड़ा अन्याय वीरांगना रानी अवंतीबाई लोधी के साथ हुआ है, इस षड्यंत्र में तथाकथित परजीवी और अंग्रेज़ों से भयाक्रांत बुद्धिजीवी इतिहासकार,अंग्रेजी पैटर्न और उनके स्रोतों को ब्रह्म वाक्य मानकर कैम्ब्रिज विचारधारा के इतिहासकार, मार्क्सवादी इतिहासकार और एक दल विशेष के इतिहासकार शामिल रहे हैं, जबकि रानी अवंतीबाई लोधी का कद और बलिदान किसी भी तरह से, झाँसी की रानी वीरांगना लक्ष्मीबाई, अवध की बेगम हजरत महल सहित अन्य वीरांगनाओं की तुलना उन्नीस नहीं रहा है, फिर भी राष्ट्रीय स्तर पर लिखे गए इतिहास में तथाकथित महान् इतिहासकारों ने उनके बारे एक पृष्ठ तो छोड़िये, एक पंक्ति नहीं लिखी है। और तो और एक उद्भट विद्वान और जाने-माने इतिहासकार राय बहादुर हीरालाल जी ने अपने गजेटियर “मंडला मयूख” में रानी अवंतीबाई लोधी के पलायन कर जाने का उल्लेख किया है क्योंकि वे अंग्रेजों के प्रभाव में थे।

भारत में सन् 1857 में बरतानिया सरकार के विरुद्ध महारथी मंगल पांडे ने स्वतंत्रता संग्राम का बिगुल बजा दिया था। अविलंब ही स्वतंत्रता संग्राम का विस्तार होने लगा था। मध्य प्रांत में जबलपुर कमिश्नरी केंद्र बिंदु बन गया था, यहाँ गोंडवाना साम्राज्य के राजा शंकरशाह और रघुनाथशाह ने बरतानिया सरकार के विरुद्ध स्वतंत्रता संग्राम छेड़ने के लिए बैठक आयोजित की थी, जिसमें रानी अवंतीबाई लोधी सहित विभिन्न क्षेत्रों के जमींदार और मालगुजार एकत्रित हुए थे। यहीं रानी अवंतीबाई ने सभी रियासतों को एकत्रित करने हेतु काली चूड़ियों की पुड़िया भेजने का प्रस्ताव रखा था जिसे स्वीकृत कर लिया गया। इसके अनुसार जो भी रियासत, मालगुजार और जमींदार इसे स्वीकार कर लेते थे, उन्हें स्वतंत्रता संग्राम में सम्मिलित माना जाता था।

दुर्भाग्यवश धोखा हो गया तथा एक भेदिए गिरधारी लाल दास ने तत्कालीन कमिश्नर इरेस्किन को सारी जानकारी दे दी।अचिरात् कमिश्नर इरेस्किन ने डिप्टी कमिश्नर लेफ्टिनेंट क्लार्क को भेजकर 14 सितंबर सन् 1857 को गढ़ा पुरवा से राजा शंकरशाह और रघुनाथशाह को गिरफ्तार करवा लिया।

18 सितंबर सन् 1857 को राजा शंकर शाह और उनके पुत्र रघुनाथशाह को ब्रिटानिया सरकार के विरुद्ध विद्रोह करने के आरोप में तोप के मुंह से उड़ा दिया गया। इस जघन्य घटना से क्रोधित होकर 52 वीं नेटिव इन्फेंट्री के सैनिकों ने सूबेदार बलदेव तिवारी के नेतृत्व में अंग्रेजों के विरुद्ध स्वतंत्रता संग्राम छेड़ दिया।

रानी अवंतीबाई लोधी ने राजा शंकरशाह और रघुनाथशाह की सहधर्मचारणियों क्रमशः वीरांगना फूलकुंवर और मानकुंवर के साथ मिलकर राजा शंकरशाह और रघुनाथशाह का अंतिम संस्कार किया। अविलंब ही विजय राघव गढ़ के राजा सरजू प्रसाद शाहपुर के मालगुजार ठाकुर जगत सिंह, शहपुरा के ठाकुर बहादुर सिंह लोधी, हीरापुर के मेहरबान सिंह लोधी भी आ मिले। सितंबर सन् 1857 में रानी अवंतीबाई लोधी ने नेतृत्व संभालते हुए बरतानिया सरकार के विरुद्ध स्वतंत्रता बिगुल बजा दिया।

रानी अवंतीबाई लोधी ने अंग्रेजों से लगातार 9 माह संघर्ष किया, जिसमें 6 प्रमुख युद्ध लड़े(देवहारगढ़ के जंगलों में छापामार युद्धों के अतिरिक्त) तथा 4 माह तक मंडला डिप्टी कमिश्नरी पर बरतानिया सरकार अपदस्थ कर अपनी सत्ता स्थापित की।

रानी अवंती बाई ने अंग्रेजों के विरुद्ध स्वतंत्रता संग्राम का अपना विजय अभियान “भुआ – बिछिया के युद्ध से आरंभ किया।उसके बाद रामनगर का युद्ध, घुघरी का युद्ध और खैरी के युद्ध हुए जिसमें अंग्रेजों की भयंकर पराजय हुई। मंडला के युद्ध में डिप्टी कमिश्नर बाडिंग्टन को वीरांगना रानी अवंतीबाई और वीरांगना फूलकुंवर ने अपने सहयोगियों के साथ भयंकर पराजय दी।

मंडला का डिप्टी कमिश्नर बाडिंग्टन अपनी फौज सहित भाग निकला और सारी व्यथा जबलपुर के कमिश्नर इरेस्किन को बताई। नवंबर सन् 1857 को मंडला डिप्टी कमिश्नरी स्वतंत्र हो गई और रामगढ़ केन्द्र बन गया। 4 माह तक रानी अवंतीबाई और रानी फूलकुंवर ने शासन किया परंतु फरवरी सन् 1858 के अंत में बाडिंग्टन पुनः फौज के साथ आ धमका। मंडला में रानी फूलकुंवर, उमराव सिंह एवं धन सिंह पराजित हो गए।शीघ्र ही उमराव सिंह रामगढ़ पहुंचे और रानी अवंतीबाई को सारा वृतांत बताया।

मार्च 1858 के आरंभ में ही डिप्टी कमिश्नर बाडिंग्टन ने अपनी फौज के साथ रामगढ़ का घेराव किया। इस युद्ध में रामगढ़ के किले से निकलकर अकस्मात् रानी ने अंग्रेजी सेनाओं की घेराबंदी तोड़ दी और देवहारगढ़ के जंगलों की ओर निकल गईं ताकि छापामार शैली में युद्ध लड़ा जा सके।

रानी अवंतीबाई ने देवहारगढ़ में मोर्चा संभाला कई बार झड़प हुई परंतु बाडिंग्टन नहीं जीत पाया। विडंबना देखिये कि 20 मार्च सन् 1858 के दिन पीछे से रीवा राज्य की सेनाएं आ जाने के कारण रानी अवंतीबाई घिर गईं। इसलिए रानी अवंतीबाई समरभूमि में सामने आ गईं और भयानक युद्ध किया परंतु पराजय की स्थिति निर्मित होते ही उन्होंने अपनी प्रिय सखि,अंगरक्षिका गिरदाबाई (गिरधाबाई) से यह कहते हुए कि “हमारी दुर्गावती ने जीते जी बैरी के हाथ से अंग न छुए जाने का प्रण लिया था। इसे न भूलना।” अपनी तलवार से स्वत:आत्मोत्सर्ग कर लिया। तदुपरांत वीरांगना रानी अवंतीबाई की अंगरक्षिका गिरदाबाई ने भी प्राणोत्सर्ग कर भारत के स्वतंत्रता संग्राम में “स्व” के लिए पूर्णाहुति दी।

वीरांगना रानी अवंतीबाई लोधी की समाधि डिंडौरी जिले के अंतर्गत शाहपुर के पास बालपुर गांव में स्थित है। स्वाधीनता के अमृत महोत्सव के आलोक में सन् 1857 के भारत के स्वतंत्रता संग्राम में राजघरानों में से प्रथम बलिदानी वीरांगना के रुप में राष्ट्रीय इतिहास में रानी अवंतीबाई लोधी का नाम दर्ज होना ही, उनके लिए सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

लेखक:- डाॅ. आनंद जी सिंह राणा
संपर्क सूत्र – 7987102901