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विश्वव्यापी हिंदू संस्कृति – 09

(सृष्टि का प्रथम मानव आर्यावर्त में जन्मा)

छांदोग्य उपनिषद में वर्णन आता है कि इंद्र तथा विरोचन दोनों ज्ञान प्राप्ति के लिए सृष्ठा के पास गए । दोनों आत्मतत्व जानना चाहते थे। ब्रह्मा जी ने कहा दोनों सज- धजकर अपना प्रतिबिंब जल में देखो । जो जल में दिखाई पड़े, वही आत्मा है। विरोचन संतुष्ट होकर लौट आए उसने शरीर को सजा धजाकर अपनी मुखाकृति देखी उसी से उसी संतोष मिल गया । किंतु इंद्र ने बारंबार मनन किया आत्मचिंतन किया पुन: बार -बार लौटकर प्रजापति ब्रह्मा से प्रश्न किया । उन्हें समाधान मिला कि शरीर नहीं, यह स्थूल काया नहीं, वरन आत्मसत्ता ही परमसत्य है । सजाना -स्ंवारना उसे चाहिए । उन्हें आत्मज्ञान की प्राप्ति हुई । विरोचन ने लौटकर देहात्मवाद का प्रचार किया । उनने प्रतिपादन किया कि देह ही आत्मा है । इसी की सेवा सृंगार साधना की जानी चाहिए । मरने पर शरीर को सुरक्षित, सुसज्जित किया जाना चाहिए । प्रलय तक आत्मा उसी में रहती है ।

जब अंततः सृष्टि प्रलय के समय नष्ट होगी तब कर्मों का निर्णय होगा, जबकि इंद्र ने आत्मसत्ता के उत्कर्ष का प्रतिपादन किया व इसके लिए मानव धर्म का निर्धारण किया। साधना पद्धतियां बनी जिनमें भोगों से त्याग की प्रधानता थी । इस प्रतिपादन से एक सत्य उभरकर आता है कि- दो प्रकार की जातियां उपनिषद कालीन समाज में थीं ।

एक आर्य, जिसके प्रतिनिधि थे इंद्र, देव सत्ताओं के प्रतिनिधि ,संस्कारी पुरुष। दूसरी दस्यु जातियां अथवा अनार्य जातियां। इन्हीं को सुर व असुर कहा गया। सुर वे जिनने भारत को अपनी कर्मभूमि बनाया तथा असुर् वे जिनमें, धर्म धारणा के प्रति प्रमाद था, देह सुख जिन्हें अधिक प्रिय था। विरोचन इन्हीं सत्ताओं का प्रतीक है व इन्हें देहात्मबाद के संस्कारों के साथ आर्यावर्त से बहिष्कृत कर दिया गया । इनने ही शवों को ‘ममी’ की तरह सुरक्षित रखने का प्रावधान बनाया, जिसमें राजा-प्रजा सभी को एक साथ सजा-धजा कर दफना दिया जाता था।

यह प्रसंग आदि संस्कृति भारतीय संस्कृति के विकास के विभिन्न आयाम को समझाने हेतु प्रस्तुत किया गया है। वस्तुतः प्रथम मानव इस क्षेत्र में भारतवर्ष में जन्मा व प्रचलित पाश्चात्य विकासवाद के विरुद्ध वह आदिम जाति का नहीं, अनगढ़ नरमानुष नहीं अपितु एक श्रेष्ठ मनुष्य था, सभ्य था, पूर्णत: संयमशील था तथा ज्ञानवान था, उसी से समग्र मानव जाति की उत्पत्ति व विकास का क्रम चला । महाभारत में एक आख्यान आता है कि-

अभगच्छ्त राजेंद्र देविकां लोक विश्रुताम् ।
प्रसूतिर्रयत्र विप्राणां श्रूयते भरतषर्भ ।।

अर्थात – सप्तचरुतीर्थ के पास वितस्ता नदी की शाखा देविका नदी के तट पर मनुष्य जाति की उत्पत्ति हुई । प्रमाण यही बताते हैं कि आदि सृष्टि की उत्पत्ति भारत के उत्तराखंड अर्थात इस ब्रह्मावर्त (हिमालय) क्षेत्र में ही हुई ।

संसार भर में गोरे, पीले ,लाल और श्याम (काले) यह चार रंगों के लोग विभिन्न क्षेत्रों में पाए जाते हैं। एक भारत ही ऐसा देश है ,जहां इन चार रंगों का भरपूर मिश्रण एक साथ देखने को मिलता है ।  वस्तुतः स्वेत- काकेशस, पीले-मंगोलियन, काले- नीग्रो तथा लाल रेड इंडियन इन चार प्रकार के रंग विभाजनों के बाद पांचवी मूल एवं मुख्य नस्ल है, जो भारतीय कहलाती है। इस जाति में उपयुक्त चारों का सम्मिश्रण है । ऐसा कहीं सिद्ध नहीं होता कि भारतीय मानव जाति उपयुक्त चारों जातियों की वर्ण संकरता से उत्पन्न हुई । उल्टे नृतत्व विज्ञानी यह कहते हैं कि भारतीय समिश्रित वर्ण ही यहां से विस्तरित होकर दीर्घकाल में जलवायु आदि के भेद से चार मुख्य रूप लेता चला गया ।

ना केवल रंग यहां चारों के समिश्रित पाए जाते हैं, वरन भारतीयों का शारीरिक गठन भी एक विलक्षणता लिए है। ऊंची दबी, गोल-लंबी मस्तिष्क आकृति उठी या चपटी नाक, लंबी ठिगनी, पतली- मोटी शरीराकृति, एक्जो व एंडोमार्फिक (एकहरी या दुहरी गठन वाली) आकृतियां भारत में पाई जाती हैं। यहां से अन्यत्र बस जाने पर इनके जो गुणसूत्र उस जलवायु में प्रभावी रहे, वे काकेशस, मंगोलियन ,नीग्रोइड व रेड इंडियंस के रूप में विकसित होते चले गए ।

अतः मूल ‘आर्य’ जाति की उत्पत्ति स्थली भारत ही है, बाहर कहीं नहीं , यह स्पष्ट तथ्य एक हाथ लगता है। पाश्चात्य विद्वानों ने एक प्रचार किया कि आर्य भारत से कहीं बाहर विदेश से आकर यहां बसे थे। संभवतः इसके साथ दूसरी निम्न जातियों को जनजाति -आदिवासी वर्ग का बताकर, वे उन्हें उच्च वर्ग के विरुद्ध उभारना चाहते थे । द्रविड़ तथा कोल, ये जो दो जातियां भारत में बाहर से आई बताई जाती हैं, वस्तुतः आर्य जाति से ही उत्पन्न हुई थी , इनकी एक शाखा जो बाहर गई थी पुन: भारत वापस आकर यहां बस गई।

भारतीय जातियों पर शोध करने वाले नृतत्व वैज्ञानिक नैसफील्ड लिखते हैं कि – “भारत में बाहर से आए आर्य विजेता और मूल आदिम मानव (अरबोरिजिन) जैसे कोई विभाजन नहीं है। यह विभाग सर्वथा आधुनिक हैं । यहां तो समस्त भारतीयों में एक विलक्षण स्तर की एकता है। ब्राह्मणों से लेकर सड़क साफ करने वाले भंगियों तक की आकृति और रक्त समान है।”

मनुस्मृति (10/ 43- 44) का एक उदाहरण है-

शनकैस्तु क्रियालोपदिना: क्षत्रिय जातय:।
वृषलत्वं गता लोके ब्राह्माणा दर्शनेन च ।।
पौण्ड्रकाशचौंड्रदृविड़ा: काम्बोजा: भवना:शका:।
पारदा: पहल्वाश्चिना: किराता: दरदा: खशा: ।।

अर्थात- ” ब्राह्मणत्व की उपलब्धि को प्राप्त ना होने के कारण उस क्रिया का लोप होने से पौंड्र, चौंडृ, द्रविड़ ,कांबोज, भवन ,शक पारद, पल्लव, चीनी किरात ,दरद, व खश ये क्षत्रिय जातियां धीरे-धीरे शुद्रत्व को प्राप्त हो गई।” स्मरण रहे यहां ब्राह्मणत्व से तात्पर्य है श्रेष्ठ चिंतन ,ज्ञान का उपार्जन व श्रेष्ठ कर्म तथा शुद्रत्व से अर्थ है निकृष्ट चिंतन व निकृष्ट कर्म। क्षत्रिय वे जो पुरुषार्थी थे व बाहुबल से क्षेत्रों की विजय करके राज्य स्थापना हेतु बाहर जाते रहे ।

मूल आर्य जाति ने उत्तराखंड से नीचे की भूमि में वनों को काटकर, जलाकर उन्हें रहने योग्य बनाया । वन्हा नगर बसाएं। इससे पूर्व वहां कोई निवास नहीं करता था । इस प्रकार मूल निवासी के रूप में एक ही उत्पत्ति आर्यों के रूप में हिमालय के उत्तराखंड क्षेत्र में हुई । वहीं से मनुष्य जाति का सारे विश्व में विस्तार हुआ । आदिमानव हिंदू समाज था । इस प्रकार शेष सभी धर्म -मत -जातियां -रेस – वर्ण कालांतर में समय प्रवाह के साथ विकसित होते चले गए । भारतीय आर्षग्रंथ’ ऋग्वेद ‘ केवल भारतीय आर्यों कि नहीं विश्वभर के आर्यों (श्रेष्ठ मानवो) की सबसे प्राचीन पुस्तक है ।

प्रारंभ में सुर-असुर- अध्यात्मवादि के रूप में जो दो विभाजनों की चर्चा की गई ,वह यहां और स्पष्ट हो जाती है सुर बे हैं जिनने ब्राह्मणत्व को जिंदा रखा व धर्मधारणा- संस्कारों आदि को जीवन में स्थान दिया। असुर वे जो किसी ना किसी अपराध में शापित या दंडित होकर बाहर निकाले गए व बाहर जाकर जो प्रदेश जिसे अनुकूल पड़ा उसे उनने अपना निवास बना लिया। उनकी संततियांँ होती चली गई व धीरे-धीरे वह क्षेत्र आवाद होते चले गए। बाहर जाने बालों के साथ कोई कुल पुरोहित नहीं गया, फलत: उनके संस्कार लुप्त होते चले गए।

भारत में ऋषियों ने अपौरुषेय वाणी के रूप में वेदों को जिंदा रखा था। एक ही मंत्र के दो या तीन ऋषि मंत्रदृष्टा बने । समय-समय पर शास्त्रों का, आर्षग्रंथों का भास्य होता रहा। वेदों की घनपाठ-जरापाठादि आदि पद्धतियों के कारण ईश्वरी ज्ञान मूल सूत्र रुप में ना विस्मृत हुआ, ना विकृत। किंतु देश से बाहर जाने वाले या तो शापित आर्य थे या पुरुषार्थी योद्धा क्षत्रिय । धीरे-धीरे शास्त्र व संस्कार विस्मृत होते चले जाने, धर्माचार्य लुप्त हो जाने से यही जातियां म्लेच्छ कहीं जाने लगी। कभी यह भारत से बाहर सीमांत देशों पर बसे किंतु धीरे-धीरे आर्य राजाओं द्वारा युद्ध तथा ब्राह्मण प्रधान क्षत्रियों के शौर्य के कारण पराजित होते- होते यह पृथ्वी के विभिन्न क्षेत्रों में फैल गए व कालक्रम से उस जलवायु के अभ्यस्त होते हुए काले ,श्वेत ,लाल ,पीले विकसित होते हुए विभिन्न नस्लों वाले कहलाए, मूलतः हैं सभी आर्य व सारी पृथ्वी भारत से निर्वासित क्षत्रिय कुमारों की संततिओं से ही भरी पूरी है, यह स्पष्ट होता है ।

मनुसंहिता यही बात कहती है –

एतद्देश प्रसूतस्य सगकाशादग्रजन्मन:।
स्वं-स्वं चरित्र्ंं शिक्षरेन पृथिव्यां सर्वमानव:।।

किंतु भारत से बाहर जाने के बावजूद अपने धर्म आचरण के प्रति अनुराग के कारण उन्हें अपने संबंध भारतवर्ष से बनाए रखें। महाभारत काल तक भारतीय नरेशो से उनके वैवाहिक संबंध हुए । उनकी कन्याएं भारत आई सत्यभामा व शैव्या के प्रसंग यही बताते हैं। इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि सारी धरती पर बसे विश्व के सारे मानव आज से पांच सहस्र वर्ष पूर्व तक भारतीय संस्कृति के ही अनुयायी ,इसी की संतति थे। भारतीय दृष्टि से वे संस्कारच्युत थे किंतु बहुसंख्य सतत प्रयत्नशील रहते थे कि वे भारतीय आचारधारा के संपर्क में रहें।

भारतीय नृतत्व विज्ञान के अन्वेषण कर्ता श्रीट्रेलर कहते हैं कि- ” विश्व में ईरान की पारसी जाति और भारतवासी हिंदू यही प्राचीनतम संस्कृतियों के उपासक मूलत: हैं। दोनों अपना निवास मूलतः हिमालय को मानते हैं। पारसी धर्म से ही क्रमशः यहूदी, ईसाई ,मुसलमान धर्म (पंथ) विकसित हुए। बौद्ध धर्म हिंदू धर्म की ही एक शाखा है और जैन धर्म की भांति हिंदू धर्म से ही वह उत्पन्न हुआ है। इन सभी को मत- संप्रदाय कहा जाए तो उचित होगा। मूलधर्म एक ही है वैदिक धर्म -हिंदू धर्म। पारसी धर्म इस वैदिक धर्म से ही निकला है, इस पर सभी अन्वेषक सहमत हैं।

भारत से बाहर जाकर बसी एक आर्यों की शाखा पारस्य देश (फारस) में बस गई व पारसी बनकर भारत वा अन्यान्य क्षेत्रों को गई ।फारसी में ‘स’ का उच्चारण ‘ह’ होता है अतः उन्होंने सिंधु देश को हिंदू कहा , स्वयं को पश्चिमी हिंदू तथा भारतीयों को पूर्वी हिंदू कहा । अपनी नदी -नगरों के नाम भी उन्होंने संस्कृत निष्ठ रखें । ‘सरस्वती’ वहां ‘हरहवती ‘ कहलायी, ‘सरयू’ ‘हरयू’ तथा ‘भरत’ ‘युफ्ररत’ (यूफ्रेटिस) ‘भूपालन’ ‘बेबीलोन’ तथा ‘काशी’ ‘कास्सी’ बन गए। अथर्ववेद की पैप्पलाद शाखा ही पारसी धर्म की मूल है । इस तथ्य पर सभी वैदिक साहित्यकार व अन्वेषक एकमत हैं ।

गोपथ ब्राह्मण में शन्नो देवी इस मंत्र से अथर्ववेद पढ़ना चाहिए यह बात 1.19 मंत्र में बताई गई है। पारसी धर्मग्रंथ ‘होमयस्त’ के 1.24 मंत्र में यही बात कही गई है। इस प्रकार ईसाई, इस्लाम सभी धर्म वैदिक धर्म से जन्मे , यह प्रमाणित होता है। यहां उद्देश्य किसी प्रकार का सांप्रदायिक विद्वेष खड़ा करना व अपने धर्म की श्रेष्ठता बताने का नहीं, वरन देव संस्कृति (भारतीय संस्कृति) के विराट सामासिक रूप का परिचय देना है, जिसका मूल खोजने पर हुई शोध हमें ‘ एकं सद् विप्रा बहुधा वदंति ‘ का संदेश देकर एक ही सत्ता को परमसत्ता मानने की प्रेरणा देती है।”

नृतत्व विज्ञान से लेकर चिरपुरातन इतिहास का आमूलचूल सर्वेक्षण एक ही तथ्य प्रमाणित करता है कि आदिकालीन मानव आर्य था, वैदिक धर्म को मानता था चिंतन ,चरित्र, व्यवहार की दृष्टि से श्रेष्ठ था। शक, हूर्ण ,मिस्री यवन आदि सब हिंदू ही थे। कालांतर में संस्कार विहीन होने के कारण यह जातियां आर्यावर्त से बाहर जाती रही, निर्वासित होती रही, पुनः मातृदेश लौटती रही। पुरातन काल में जातिच्युत व्यक्ति को पुनः आर्य मानव जाति का अंग बना लेना ही शुद्धि का प्रतीक था ।

जाति की मिथ्या परिभाषा, वर्ण जाति भेद गलत व्याख्या तथा व्यापक पैमाने पर बहिष्कार की परंपरा ने हिंदू संस्कृति का कालांतर में कितना नुकसान किया व आज भी विश्व मानवता के पथ पर एक अवरोध बनकर खड़ा है। इस पर सभी मानवता वादियों का मत एक है। इस संदर्भ में युगऋषि, पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य ने कहा की- ” हिंदू संस्कृति को देव संस्कृति कहकर उसके चिर पुरातन गौरव की ओर ध्यान दिया जाना चाहिए, पर साथ ही यह भी ध्यान रहें कि हमारी संस्कृति में कालक्रम के अनुसार कई विकृतियों का भी समावेश होता रहा है। हमें युगानुकूल संस्कृति विकसित करना है व इसे विज्ञान सम्मत, पुन: इसके सास्वत- सार्वजनीन रूप में लाकर इसके द्वारा विश्व मानवता का मार्गदर्शन करना है।”

वस्तुतः समस्त भारतीय संस्कृति एक सर्वांग पूर्ण दर्शन है, उसका इतिहास एक शाश्वत जीवन दर्शन हम सबके समक्ष रखता है किंतु यह विवेचन अध्यात्म के व्यवहारिक व युगानुकूल प्रतिपादन के रूप में जन -जन के समक्ष आए तो ही इस प्रतिपादन की सार्थकता है। हमें भारतीय संस्कृति के आदिकालीन रूप से लेकर चिरनवीन प्रसंगो तक सभी पर विवेचन करना चाहिए। यदि हम वेदों मात्र तक सीमित रह जाते हैं तो उन समृद्ध परंपराओं की उपेक्षा करते हैं, जो पिछले 2000 वर्षों में पनपी हैं।

आर्य जाति की कल्पना व आर्यावर्त की धारणा हमें उत्तर भारत (नर्मदा से ऊपर का क्षेत्र) तथा दक्षिणी भारत दो में अलग करती है जबकि दक्षिण में रहने वाली द्रविड़ जाति, जो बाद में हिंदू संस्कृति के विकास का मुख्य केंद्र रही मूलमानव से उपजी ही संस्कृति थी, जो दक्षिण में जाकर बस गई। इस कथन पर कई विवाद भी खड़े हो सकते हैं व कई विद्वान अपने तर्क भिन्न-भिन्न रूपों में प्रस्तुत कर सकते हैं, पर एक सत्य सास्वत है व हमेशा रहेगा की जातियां, रेस के सिद्धांत हमारे यहां बाद में आए। मैथिल, गौड़, कान्यकुब्ज की तरह ‘द्रविड़’ शब्द भौगोलिकता के परिपेक्ष में ही समझा जाना चाहिए।

आग्नेय, द्रविण, इंडोयूरोपीय ,किरात, आदिममानव (अरबोरिजिन) तथा आर्य इनकी परिकल्पना व प्रतिपादन शास्त्र चर्चा व मनोविलास के प्रसंग हो सकते हैं किंतु तथ्य यही है कि नृतत्व विज्ञान (एंथ्रोपोलॉजी) एवं मानुषमिति (एंथ्रोपोमेट्री) भी अब इसी निष्कर्ष पर पहुंच रहे हैं कि प्रकृति ने भारत भूमि पर एक विलक्षण प्रयोग किया है। एक श्रेष्ठ आदिमानव व सामासिक संस्कृति के रूप में भारतीय संस्कृति का जन्म आर्यावर्त में होना प्रमाणित हो चुका है व संस्कृति के सास्वत तत्व जिनका आज हम प्रतिपादन करते हैं, सारी विश्व मानवता का मार्गदर्शन करने में भारत आज भी सक्षम है।

लेखक:- डॉ. नितिन सहारिया
संपर्क सूत्र:- 8720857296