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सही इतिहास लिखने की दिशा में युगांतरकारी कदम

देश की किताबों में जो इतिहास पढ़ाया जा रहा है वह देश की नयी पीढ़ी के समक्ष आत्मगौरव की प्रति हीनता तो उत्पन्न करने वाला है ही, तथ्यात्मक दृष्टि से भी तोड़-मरोड़कर एवं सच्चाई को छिपाने वाला है। उदाहरण के लिये जिन भारतीयों ने इन विदेशियों से प्राण हथेली पर लेकर संघर्ष किये उनके लिये कोई जगह नहीं है। बाबर का यशोगान है पर महान भारतीय शूरमा राणा सांगा का कोई उल्लेख नहीं है। अकबर का प्रशस्ति गायन है पर घास की रोटी खाने वाले और जंगलों में रहकर अकबर से लड़ने वाले महाराणा प्रताप के लिये कोई जगह नहीं है। औरंगजेब के लिये कसीदे गढ़े गये हैं पर सम्पूर्ण राष्ट्र के श्रद्धेय महान क्षत्रपति शिवाजी के लिये मात्र दो लाइनें- वह भी नकारात्मक।

कक्षा 12 की पुस्तक में मुगल राज्य को एक आदर्श राज्य बताया गया है कि उनके संदर्भ में एक दैवी प्रकाश की बात कही गई है। लेखक का कहना है कि सभी मुगल बादशाहों ने उपासना स्थलों के रख-रखाव के लिये अनुदान दिये। जबकि शाहजहाँ और खासतौर से औरंगजेब द्वारा मंदिरों को ध्वस्त करने के क्रूर कारनामों से इतिहास भरा पड़ा है। इस सम्बन्ध में काशी विश्वनाथ एवं मथुरा की कृष्ण जन्मभूमि के मंदिर आज भी प्रमाण हैं। एक अध्याय में महान विजयनगर सम्राट का वर्णन किया गया है। इसमें विजयनगर की पुरातत्व की दृष्टि से नाप-तौल अवश्य की गई है, परन्तु महान विजयनगर साम्राज्य का इतिहास गायब है क्योंकि विजयनगर हिन्दू साम्राज्य था। पूरा अध्याय पढ़ने पर भी पता नहीं चलता कि इसके संस्थापक हरिहर और बुक्का थे। इस साम्राज्य के योजक स्वामी विद्यारण को कहीं भी उल्लेख लायक तक नहीं समझा गया।

भक्ति और सूफी परम्परा के अध्याय में अधिकांश में सूफी मत की ही वर्णन है। शंकराचार्य, बल्लभाचार्य, चैतन्य महाप्रभु, सूर, तुलसी, रहीम, रसखान जैसी महान विभूतियों की या तो चर्चा नहीं है या उन्हें एक ही लाइन में चलता कर दिया गया है। कभी सोने की चिड़िया कहे जाने वाले समृद्ध एवं महान भारत को मात्र राजाओं के स्वामित्व में बता दिया गया है। तथ्यों के विपरीत यह लिखा गया कि छोटे-छोटे काम करने वालों को पंचायती व्यवस्था में कोई जगह नहीं थी, जबकि इन्हीं के निषाद वर्ग से मिलकर ही पंच बनते थे।

सम्पूर्ण विश्व में स्थापित तथ्य है कि वेद दुनिया में सबसे पुराने ग्रंथ हैं, परन्तु एन.सी.ई.आर.टी. के टेक्स्ट बुक-थीम ऑफ इंडियन हिस्ट्री में इन्हें ईसा के जन्म के 1000 से 1500 वर्ष मात्र पूर्व का बताया गया है। ऐसी ही तोड़-फोड़ महाभारत के बारे में भी की गई है और इसे ईसा के जन्म के 500 वर्ष पूर्व ही लिखा जाना बताया गया है। इतना ही नहीं महाभारत के बारे में कई तथ्य तोड़-मरोड़ कर दिये गये हैं, जैसे इसमें एक लाख की तुलना में दस हजार छंद होना ही बताया गया है। सबसे आपत्तिजनक बात तो यह है कि महाभारत को कृष्ण द्वैपायन व्यास द्वारा रचित बताने के बजाय सारथी भांटो द्वारा जीत की खुशियों और योद्धाओं की उपलब्धियों के संदर्भ में रचित बताया गया है। जबकि यह सर्वविदित है कि भाट सामान्यतः अपढ़ होते थे जो गद्य तक ठीक से नहीं लिख सकते थे। इस तरह से ऐसी बातें प्रचारित कर हिन्दू परम्पराओं एवं मान्यताओं को नीचे गिराने और अपमानित करने का प्रयास किया गया।

मनुस्मृति हिन्दू लाॅ पर पहली और प्रमुख पुस्तक है, कम से कम इस बात को लेकर कहीं कोई विवाद नहीं है। इस ग्रंथ को पूरे विश्व में बड़े सम्मान के साथ देखा जाता है। इसका सम्बन्ध इतिहास पूर्व से है, परन्तु एनसीईआरटी के अनुसार यह ईसा के 200 वर्ष पूर्व की है जबकि मनुस्मृति का उल्लेख गीता में भी मिलता है। अब एनसीईआरटी ने मनुस्मृति के शब्दों को कैसा तोड़ा-मरोड़ा है यह भी देखने योगय है। मनुस्मृति में चांडाल से तात्पर्य है- जो प्रकृति से निहायत क्रूर और स्वभावगत पापपूर्ण कार्याें में लिप्त रहता हो, इसलिये उसे शहर या गाँव से बाहर रहने के लिये कहा गया है। जबकि एनसीईआरटी की किताबों में चांडाल को शूद्र का पर्याय बना दिया गया है। जबकि पश्चिम के महान विद्वान मैक्समूलर तक ने चांडाल और शूद्र में भेद किया है। शूद्रों के सम्बन्ध में मनुस्मृति में छठवें अध्याय में स्वतः कहा गया है-
‘‘विप्राणां ज्ञानतौ ज्येष्ठउप क्षत्रियाणं वीर्यतः वैश्यानां धान्य धनतः शूद्राणभमेव जन्मतेः’’
अर्थात ब्राम्हणों को विद्या से, क्षत्रियों को बल से, वैश्यों को धन से और शूद्रों को जन्म से श्रेष्ठ माना गया है। वस्तुतः अपने यहाँ शूद्र से अर्थ मूलतः शिल्पी, शिल्पकार एवं कलाकार से होता था। भवना बुद्ध एवं भगवान महावीर के सम्बन्ध में भी आधी-अधूरी जानकारी दी गई है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र के सम्बन्ध में बिना किसी आधार के बताया गया है कि यह पूरी तरह कौटिल्य द्वारा लिखित नहीं है। कौटिल्य और चाणक्य को अलग-अलग बताने का प्रयास किया गया है। चाणक्य को चन्द्रगुप्त का मंत्री बताया गया है, जबकि वह मगध साम्राज्य के प्रधानमंत्री थे।

स्वामी विवेकानन्द ने कहा था- ‘‘आज तक हमारा इतिहास विदेशियों ने ही लिखा है। इसमें हमारे गौरव की चर्चा न होकर हमारी तुच्छताओं का ही अधिक वर्ण है। इसमें हमारी विजय नहीं, पराजय ही रेखांकित की गई है। अब आवश्यक है कि हम अपने देश को अपनी आँखों से देखें, उसके इतिहास को स्वयं खोजें और पढ़ें। तब हमारी आने वाली पीढ़ियाँ यह जान सकेंगी कि हम किस महान देश की संतान हैं। लेकिन स्वतंत्र भारत के इतने साल बाद भी हमारे देश के ही इतिहास लेखक उसी विदेशी नजरिये से इतिहास लिख रहे हैं। ऐसे लोगो को ही श्री अरविन्द द्वारा पश्चिमीकृत मस्तिष्क का विशेषण उपयोग किया गया था। सच्चाई यह कि हमारी पाठ्य-पुस्तकों में जैसे गणित में वराहमिहिर का, भूगोलशास्त्र में आर्यभट्ट का और चिकित्सा शास्त्र में पतंजलि, चरक, सुश्रुत और जीवक का कहीं उल्लेख तक नहीं है। अर्थशास्त्र और राजनीति में चाणकय का नाम लेना भी वर्जित है। जबकि सभी पश्चिमी एवं रूस, चीन, जापान जैसे देश अपने पाठ्यक्रमों में अपने वैज्ञानिकों और दूसरे स्काॅलरों को सम्मान के साथ पढ़ाते और उन्हें खोजों का श्रेय देते हैं।

कुल मिलाकर हमारी पाठ्य-पुस्तकों में भारतीय गौरव कही नहीं है। प्राचीन चरित्रों की बात अपनी जगह पर है, गुरू तेग बहादुर जैसे आध्यात्मिक एवं अप्रतिम बलिदानी महापुरूष लुटेरा बता दिये जाते हैं। यह पूरी तरह प्रमाणित हो गया है कि आर्य इसी देश के थे, कहीं बाहर से नहीं आये थे। पर इस देश के काले अंग्रेज बराबर अब भी यही प्रचारित करते हैं कि आर्य मध्य एशिया से आए। आर्य यदि विदेश से आते तो अपनी मातृभूमि की प्रशंसा में गीत रचते, जबकि आर्याें ने भारत, गंगा, हिमालय के अलावा और किसी देश का गुणगान नहीं किया है। वस्तुतः इतिहास लेखन का उद्देश्य यह होना चाहिए, जिसमें राष्ट्र का गौरव झलके, पूरे देश को खड़े होने और आगे बढ़ने में बल मिले, लेकिन विडम्बना यह है कि अराष्ट्रीय शक्तियाँ देश की नयी पीढ़ी को पढ़ाने के लिये कलुषित कथाएं रच-गढ़़ रही हैं और भारत माता के चेहरे पर कालिख पोत रही हैं। प्रकारान्तर से राष्ट्र जीवन को कमजोर कर रही हैं। इस सम्बन्ध में पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने लिखा है- ‘‘अपने नायकों उनकी शौर्य गाथाओं, साहित्य पराक्रमों और अतीत की विजयों की स्मृति जीवंत बनाकर एक देश खड़ा होता है’’

यह सुखद अनुभूति है कि वर्ष 2014 में केन्द्र में मोदी सरकार आने के बाद देश अपने जड़ो की ओर लौट रहा है, और अपने भूले-बिसरे नायकों और उनके कृतित्व को सामने लाने का प्रयास कर रहा है। इसी क्रम में 24 नवम्बर को महान असमी योद्धा लचित बरफूकन की 400वीं जयन्ती भव्य रूप से मनाई गई। ज्ञातव्य है कि लचित बरफूकन ने 1661 में औरंगजेब की विशाल सेना को अल्पसाधनों और कम सेना के बल पर निर्णायक रूप से सरईघाट के युद्ध में हराकर हिन्दू अस्मिता की रक्षा की थी। इसी तरह कई हिन्दू योद्धाओं ने मुठालों की विशाल सेनाओं को हराया। महाराणा प्रताप ने दिवेर को खुले युद्ध में अकबर को निर्णायक पराजय दी, तो छत्रपति शिवाजी महाराज ने आगरा में औरंगजेब की कैद से लौटने के बाद कई खुली लड़ाइयों में औरंगजेब को पराजित किया। बुंदेल केशरी छत्रसाल से औरंगजेब को गई लड़ाइयों में मुंह की खानी पड़ी। इसी तरह से मेवाड़ के महाराणा जय सिंह ने औरंगजेब को पराजित किया था। पर इन गौरव-गाथाओं की चर्चा हमारे इतिहास में नहीं है। उपरोक्त परिस्थितिायों को दृष्टिगत रखकर ही 26 नवम्बर को ललित बरफून की 400वीं जयंती के समापन समारोह में बोलते हुये प्रधानमंत्री मोदी ने कहा- ‘‘भारत का इतिहास सिर्फ अत्याचारियों के विरूद्ध अभूतपूर्व शौर्य और पराक्रम दिखाने का इतिहास है। दुर्भाग्य से हमें आजादी के बाद भी वही इतिहास पढ़ाया जाता रहा, जो गुलामी के कालखण्ड में रंजिशन रचा गया था। आजादी के बाद जरूरत थी, इस एजेंडे को बदलने की जो नहीं हुआ।

यह सुखद अवसर है इंडियन काउंसिल ऑफ हिन्टोरिकल रिसर्च ने इतिहास को फिर से लिखने के लिये एक प्रोजेक्ट को लांच किया है, जिसके तहत भारत का इतिहास फिर से लिखा जायेगा। इसका उद्देश्य यह कि पहले जो भी झूठ बताया गया है, उसे समाप्त कर तथ्यों के साथ इतिहास लिखना है। 100 से ज्यादा इतिहासकार इस प्रोजेक्ट पर काम कर रहे हैं।

वीरेन्द्र सिंह परिहार
8989419601