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इस्लाम: अपने घेरे से बाहर जानें की इजाजत नहीं देता परिणाम सामने हैं

मुसलमानों द्वारा किसी दरगाह चाहे वह ख्वाजा चिश्ती की हो या निजामुद्दीन मिश्ती की या अन्यों की। उर्स के अवसरों पर कव्वाली का आयोजन होता है। यह एक मान्य परम्परा बन गयी है। यद्यपि कव्वाली शुद्ध भारतीय परम्परा है। इसी प्रकार मृत्यु के बाद की रश्में भी एक दफनानें की क्रिया को छोड़कर तेरहवीं, तीजा और चालीसवाँ या फिर बरसी जैसा आयोजन लगभग ठीक वैसे ही सम्पन्न किये जाते हैं, जैसे हिन्दू परिवारों में आयोजित होते हैं। ये रश्में भारतीय मुसलमानों (पाकिस्तान, बाँग्लादेश और भारत) के अलावा कहीं और किसी देशों के मुसलमानों द्वारा सम्पन्न नहीं की जाती। इन्हें भारत की श्रेष्ठ परम्पराओं के अनुपालन से परखा जाकर अपनाया गया होगा।

जहां तक रश्म-रिवाजों और परम्पराओं का सवाल है, उनका मिला-जुला रहन-सहन खासकर भारत में स्वाभाविक है, क्योंकि ये जबरिया बनाये गये मुसलमान हैं, इनके पूर्वज हिन्दू ही थे। इस तथ्यात्मक सत्य को कोई चुनौती भी कैसे दे सकता है। भारत प्राचीन हिन्दू देश है। हिन्दूधर्म ही सब धर्मों का आधार है। इस पृथ्वी पर करोड़ों वर्ष पुराना यह हिन्दुओं का सनातन धर्म अस्तित्व में है। प्राचीन इतिहास पर दृष्टि डालें तो पता चलता है कि नववर्ष का उत्सव चार हजार वर्ष पहले बेबीलोन में भी मनाया जाता था, वह भी 21 मार्च को यह तिथि बसंत ऋतु के आगमन की परिचायक तिथि (हिन्दू धर्मावलम्बियों के नववर्ष) भी मानी जाती थी।

अंग्रेजों का शासन आने के बाद एक जनवरी को नयावर्ष मनाने का प्रचलन प्रारम्भ हुआ। भले ही अंग्रेजी कलेण्डर बदल गया हो, पर हिन्दू कलेण्डर परिवर्तित नहीं हो सका। जन्मतिथि, विवाह के लिये वर-वधू का मिलान आदि हिन्दू पंचाग से ही होता चला आ रहा है। सारे व्रत-त्यौहारों का हिसाब नक्षत्रों-ग्रहों की गणना पर ही निर्भर रहता है। इस निर्भरता को तोड़ने का भरसक प्रयत्न करने के बाद भी अंग्रेज भारतीय संस्कृति के इन गहरे तक जमे सूत्रों को काट सकने में लगभग असफल ही रहे।

वामपंथी इतिहासकारों ने अलाउद्दीन खिलजी के शासन काल में हिन्दुओं पर किये गये जुल्मों की दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं को न केवल छिपाया है, वरन् उसके शासनकाल को, उसके कुकृत्यों पर पर्दा डालते हुये, महिमामंडित भी किया है। दिल्ली सल्तनत का लगभग 250 वर्षों का इतिहास सामान्यजनों, महिलाओं और बच्चों के लिये क्रूरता, दमन और अत्याचारों से भरपूर रहा है।

हिन्दू फोबिया का होहल्ला मचाने से तो अब बात बनेगी नहीं, इस्लाम को पैदा करनी होगी-विमर्श की गंजाईश। राजनीति तो अपने तरीके से काम करती है, मगर सामाजिक विमर्श का छोटा सा प्रयास छोटी से छोटी घटना में नई दिशा दे सकता है।  इस संदर्भ में संघ प्रमुख श्री मोहन भागवत की पहल सराहनीय है। पी.एफ.आई. जैसे संगठन तो जहर घोलने के लिये ही बनाये गये हैं।

आतंकवाद के दौर में जम्मू-कश्मीर के सैकड़ों मंदिर इस्लामिक आतंकवादियों की बर्बरता एवं क्रूरता के शिकार हुये। इन्हें किनसे शह मिल रही थी? एक तरफ इस्लामिक कानून की बात की जाती है, उससे मुकरने की भी बात सामने आ जाती है। जहां इस्लामिक कानून कहना है कि दूसरे की जमीन पर दूसरे समुदाय के धर्मस्थल पर मस्जिद बनाया जाना अनुचित है। वैसे ही अजान के मामले में भी हठधर्मिता और जिद सामने आ जाती है।

इतिहास में दर्ज ये उदाहरण ध्यान में रखे जाने योग्य हैं। प्रख्यात फारसी पुस्तक ‘‘तारीख वसाफ’’ में 13वीं शताब्दी में भारत का यह हाले वाक्या दर्ज है, मुहम्मदी फौजों ने इस्लाम के लिये उस नापाक जमीन पर बायें-दायें बिना कोई मुरव्वत मारना, कत्ल करना शुरू किया और खून के फब्बारे तक छूटने लगे। उन्होंने इस पैमाने पर सोना-चांदी, जवाहरात और तरह- तरह के कपड़े लूटे जिसकी कल्पना नहीं हो सकती। उन्होंने इतनी बड़ी संख्या में लड़कियों और बच्चों को कब्जे में लिया कि कलम उसका वर्णन नहीं कर सकती।

मुहम्मदी फौजों ने देश को बिल्कुल ध्वस्त कर दिया। यहां के वाशिंदों की जिन्दगी तबाह कर दी। सोमनाथ समेत अनेक मंदिर उजाड़ दिये गये, देव मूर्तियाँ तोड़कर पैरों तले रौंदी गयीं, ताकि लोग याद रखें और इस शानदार जीत की चर्चा करें। 14वीं शताब्दी में विजयनगर के कुमार कंपण की  पत्नी गंगा देवी ने अपने ‘‘मधुर विजयम्’’ में मदुराई के बारे में लिखा है। ‘‘हर दिन हिन्दुओं के धर्म को अपवित्र किया जाता है वे भगवान की मूर्ति तोड़ देते हैं और पवित्र ग्रंथों को आग में झोंक देते हैं। पूजा कर रहे हिन्दुओं पर मुंह से पानी फेंकते हैं और हिन्दू सन्तों को ऐसे परेशान करते हैं, मानो वे सारे पागल हों।’’

यह सब मुल्तान से लेकर मदुराई तक सदियों तक होता रहा और आज भी होता मिल जाता है। मानसिकता नहीं बदली है। तमाम इस्लामी शासकों ने ऐसा किया। इसका समर्थन मुस्लिम इतिहासकारों ने ठसक के साथ किया। उन्होंने अपने नायकों को इस्लाम के शानदार प्रतिनिधियों के रूप में ही चित्रित किया। वे भूल गये कि  कभी वह इस्लामी इतिहास अतीत का इतिहास बनकर रह जायेगा और इस्लाम के इस रिकार्ड को कभी मानवीय मूल्यों के पैमाने से भी देखा जायेगा।

मुस्लिम इतिहासकारों ने ईमानदारी से लिखा था कि वे मध्यकालीन मुस्लिम शासक इस्लाम के निर्देशों का पालन कर रहे थे। जब उन्होंने नरसंहार किया, गुलाम बनाया और स्त्रियों-बच्चों के साथ दुष्कर्म किया। ऐसा दुनिया में उन हर जगहों पर हुआ, जहाँ मुस्लिम आक्रान्ता पहुंचे।

अब सच का सामना करने का समय है। क्योंकि पाकिस्तान मांग करने वाले भी यहीं रह गये। धर्मान्धता किसी भी देश व समाज के लिये बहुत खतरनाक स्थिति है। तन से सिर जुदा करने का फर्मान आदिम जमाने की बात हो गयी। यह एक सर्वमान्य तथ्य है कि सत्य सदा सत्य ही रहता है, चाहे सामाजिक हो या दार्शनिक। वह अपनी अहमियत के आधार पर स्थिर रहता है। स्थिर न रह पाने की स्थिति में, वह ढह भी सकता है। इस्लाम अपने घेरे से बाहर जाने की अनुमति नहीं देता, जबकि बाहर के लोगों को अंदर लाने की बेसब्र लालसा रखता है। गत 1400 वर्षों का इतिहास भी यही ढिंढौरा पीटता हुआ दृष्टिगोचर होता है। उसने अपने दावे को तलवार की नौंक पर ही मजबूर करके मनवाया। इसके संस्थापक ने स्वयं अपने गांव में भी ऐसा ही किया। हिंसा और हिंसा की धमकी के अलावा है ही क्या? युग परिवर्तित होते रहे लेकिन मानवीय विवेक इससे कभी सहमत नहीं हुआ। जिन्ना से लेकर आजम खान और औवैसी तक अनेक मुसलमानों के स्वयंभू ठेकेदार बने हुये जब तब कौम को बरगलाते ही हैं।

इस कड़ी को पूर्व संदर्भित रहन-सहन और खान-पान और पहिनावा को जोड़ना आवश्यक माना जाये कि रहीम रसखान ने भक्तिगीत लिखे, जो दिल को छू जाने वाले हैं। सभ्यता और लम्बे समय तक संस्कृति का भी आदान -प्रदान पूरी सिद्दत के साथ होता रहा है, जिसे नजर अंदाज नहीं किया जाता चाहिये। खानपान में मुलसमानों की गुलाबजामुन और पुलाव हिन्दुओं के भोजन में भी शामिल हुआ। कुर्ता, पजामा, शेरवानी की क्या बात है? शादी में भी सुर्ख जोड़ा ही पहना सुहाग का प्रतीक है। इन देशों के अलावा किसी भी देश की मुसलमान बीबी नहीं पहनती, ईद के दिन मुसलमान सेवईं खाते हैं यह सिवंई हिन्दू रसोईघर से होती हुयी यहां तक पहुंची है। भारत, बाँग्लादेश और पाकिस्तान को छोड़कर, कहीं का मुसलमान सेवंई नहीं खाता। शादी का सुर्ख जोड़ा सुहाग का प्रतीक इन तीन देशों के अलावा किसी भी देश की मुसलमान बीबी नहीं पहनती। ऐसे अनगिनत रस्मों- रिवाज पहनावा हैं, जो आसपास पड़ोस में रहने के कारण अपनाये गये हैं।

इसी सह अस्तित्व और दूसरों के विचारों को नकारने वाले सिद्धान्त को अमल में लाने का दुर्भाग्यपूर्ण परिणाम था, देश को तोड़ने के लिये पाकिस्तान का निर्माण। इसे अस्तित्व में लाने के लिये उसी छल-फरेब के साथ- साथ हिंसा का सहारा लिया गया और मानसिक दबाव भी बनाया  गया। उल्लेखनीय है कि भारत में रहने वाले बंगाल, बिहार, उत्तरप्रदेश के मुसलमानों ने पाकिस्तान बनाने के पक्ष में 99 प्रतिशत मतदान किया था। इनमें से अधिकांश तो पाकिस्तान गये भी नहीं। जो गये हैं उन्हें आज भी वहां ‘मुजाहिर’ याने दोयम दर्जे का नागरिक माना जाता है। उर्दू भाषा के कारण उनसे घृणा की जाती है। वहाँ उनके साथ जुल्मोसितम हो रहे हैं। एक तुर्क लुटेरे इख्तियार खिलजी ने नालंदा विश्वविद्यालय और उसके विशाल पुस्तकालय को जलाकर  पूर्णतः नष्ट करवा दिया था। क्या भूलें, क्या याद करें? पाकिस्तान बर्बादी की कगार पर है। वह अच्छा पड़ोसी भी नहीं बन सका।