समय तीव्र गति से परिवर्तित हो रहा है। इसी कारण सामाजिक बदलावोंं में भी अप्रत्याशित वृध्दि हो रही है। वर्तमान में आर्थिक समृद्धि बढ़ी ,किन्तु इस समृद्धि ने उससे कई गुना ज्यादा हमारी जीवन शैली को हानि भी पहुँचाई है। यह वह दौर है जब समाज एक ‘संक्रमण की अवस्था’ से गुजर रहा है। मानवीय एवं नैतिक मूल्यों, संवेदनाओं का ह्रास अप्रत्याशित तौर पर बढ़ा है। इस संक्रमण ने यदि सबसे ज्यादा किसी को अपनी चपेट में लिया है- तो वह है बच्चों का बचपन एवं उनका बालमन। विश्वभर में हुए विभिन्न शोधों के आधार पर यह स्पष्ट किया जा चुका है कि -बच्चों द्वारा बाल्यकाल की अवस्था में सीखी गईं चीजें तथा उस समय का परिवेश ही उनके समूचे जीवन में चरितार्थ होता है। हालाँकि समय के साथ भविष्य में भले ही दृढ़ इच्छाशक्ति, कुशल मार्गदर्शन के चलते बच्चा अपने को सुव्यवस्थित साँचें में ढाल ले किन्तु अधिकांशतः यह न्यून पैमाने पर ही हो पाता है जबकि ज्यादातर बच्चों का बचपन -सामाजिक परिवेश ही उनके जीवन को दिशा देता है।
लेकिन आधुनिकता व तकनीकी ने बच्चों के मौलिक विकास को इस हद तक प्रभावित किया है कि-वे एक ‘यन्त्र’ की भाँति बनते चले जा रहे हैं। तकनीकी के माध्यम से जिस प्रकार से एक विशेष कार्यक्रम, दिशा निर्देश के अनुरूप किसी मशीन का सञ्चालन किया जाता है। ठीक उसी प्रकार से बच्चों को भी एक विशेष ढाँचे में ढालने व तदनुसार आचरण के लिए तैयार किया जा रहा है। यह जाने-अनजाने ,चाहे किसी भी कारण के चलते हो रहा हो। लेकिन ये दृश्य बेहद घातक एवं विनाशकारी हैं। जो पूरी पीढ़ी को मशीन बना रहे हैं। डिजिटलीकरण,तथाकथित आधुनिकता की अन्धी दौड़ व ‘एकल परिवार’ के बढ़ते चलन ने बच्चों एवं बचपन को संकट में डाल दिया है। इस संक्रमण के कारण बच्चे – संयुक्त परिवार की सीख, स्नेह, समन्वय तथा परिवार के प्रत्येक व्यक्ति के साथ आत्मिक लगाव व बचपने की नटखट शरारतों से वञ्चित होते चले जा रहे हैं
दूसरी ओर दादा-दादी के सानिध्य में कई पीढ़ियों के अनुभवों, उनके वात्सल्य व सामाजिक जीवन में प्रवेश के लिए बुजुर्गों की थाप से वंचित होते जा रहे हैं। स्थिति यहाँ तक आ पहुँची है कि दादा-दादी या संयुक्त परिवार के सभी सम्बन्ध केवल शाब्दिक घेरे में सिमटते चले जा रहे हैं। बच्चों के शारीरिक खेलों को स्थानापन्न करके उसका स्थान डिजिटल गेमिंग ने ले ली है।उनकी बुध्दि, सोचने समझने व महसूस करने की भावना कम होती जा रही है। और बच्चों में सामूहिक नेतृत्व, सहयोग की भावना पनपने की बजाय – अवाँछनीय तनाव, विकृतियों ने डेरा जमा लिया है। बच्चे को जिस उम्र में भरपूर खेलना चाहिए, उस उम्र में उसके हाथों में ऑनलाइन, डिजिटल गैजेट्स थमा दिए गए हैं।
बच्चों का हँसना, रोना, लड़ना-झगड़ना तथा अन्य बालसुलभ चेष्टाओं के दमन के लिए माता-पिता उन्हें मोबाईल फोन, कम्प्यूटर इत्यादि देकर अपना पीछा छुड़ा लेते हैं। जबकि इसका बच्चों के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। साथ ही वास्तविक दुनिया से कटाव होने पर बच्चे – मोबाईल फोन, कम्प्यूटर की दुनिया से बाहर कुछ भी स्वीकार न कर पाने की स्थिति में बढ़ रहे हैं।
इस संकट के प्रत्यक्ष उदाहरण हम सब नित-प्रति देख रहे हैं कि- बच्चों में चिड़चिड़ापन, गुस्सा, उच्छृंखलताओं स्तर दिनोदिन बढ़ रहा है। और बच्चे थोड़ी सी डाँट पर ही उद्वेलित हो जाते हैं। वर्तमान परिदृश्य में बच्चे लोगों के बीच रहने की बजाय डिजिटल गैजेट्स में पूरा समय व्यतीत करना ज्यादा पसंद कर रहे हैं।यह बेहद गम्भीर समस्या है जिस पर चिंतन- मंथन करने के स्थान पर पूरा समाज सोया हुआ है। किसी को इसकी चिन्ता नहीं रह गई है कि- वे बच्चों को कितने बड़े संकट में डालते चले जा रहे हैं। माता-पिता या परिवार के द्वारा बच्चों को उनकी मनुहार के बदले डिजिटल गैजेट्स सौंपकर शान्ति स्थापित कर रहे हैं। और बच्चों को उनके बचपन,माटी सामाजिक परिवेश से दूर कर रहे हैं। यह सब बच्चों के बचपन कैद कर – दमित करने के अलावा कुछ भी नहीं है।
माताओं ने बीते दशकों की दीर्घावधि से एक प्रकार से बच्चों को स्तनपान कराने से छुटकारा पा ही लिया है। लेकिन ममत्व की वह अवधारणा दिनों-दिन इतनी विकृत होती चली जा रही है कि- अधिकांशतः माताओं/ परिवारों ने बच्चों की देखभाल करने से भी मुक्ति पाने के लिए भी पर्याप्त प्रबन्ध कर लिए है। बच्चों के रोने पर या अन्य माँग करने पर उन्हें मोबाइल फोन, गैजेट्स थमाए जा रहे हैं। गाँवो, कस्बों एवं छोटे-छोटे शहरों में यह स्थित थोड़ी नियन्त्रित है लेकिन अछूती तो बिल्कुल भी नहीं है।
नगरों-महानगरों में तो बच्चों को ‘किड्स केयर सेन्टर’ में भेजा जा रहा है। बच्चों को संस्कारवान बनाने व उनकी परवरिश के लिए किसी के पास समय नहीं है। जबकि बाल्यकाल में बच्चों को ममत्व-पितृत्व व पारिवारिक वात्सल्य की सर्वाधिक आवश्यकता होती है। मातृत्व की छाँव में पोषित बचपन ही जीवन की समस्त चुनौतियों से जूझने का माद्या रखता है। वहीं आज उस प्राकृतिक व्यवस्था के विरुद्ध एक प्रकार का अभियान शुरू हो गया है ,जिसमें ‘बचपन एवं बालविकास’ कहीं रह ही नहीं गया है।सबकुछ एक मशीनरी पध्दति की तरह हो गया है।ऐसे में भविष्य में बच्चा जब बड़ा होगा ,तब वह कितना भावनात्मक लगाव, संवेदनशीलता से परिपूर्ण होगा यह भी अपने आप में यक्षप्रश्न है।
इस संक्रमण काल में सभी सामाजिक सम्बन्ध व दायित्व नित प्रति बोझ बनते चले जा रहे हैं।औपचारिकता की भरमार एवं दायित्वों से मुक्ति को ही आधुनिकता व श्रेष्ठता कहा जाने लगा है। बाकी बाजार तो इन सबके नाम पर अन्धाधुन्ध पैसा वसूलने के लिए तैयार ही है। बाजार मुँह फैलाए खड़ा है कि- आप अपनी सम्पूर्ण जिम्मेदारी छोड़िए और आगे आकर हम धन के बदले उसकी पूर्ति करेंगे।
समाज उसी अन्धे कुएँ में उतरता चला जा रहा है ,जहाँ से वापस लौटने का मार्ग नहीं है। बच्चों की दो -ढाई वर्ष की अवस्था होते ही उन्हें ‘ प्ले स्कूल भेजने की कवायद शुरु हो जाती है। माता-पिता नौनिहालों के बचपन से ही उनकी पीठ पर भारी-भरकम बस्ते का बोझ लादकर उन्हें क्रूर प्रतिस्पर्धा का मोहरा बनाकर खेलने लग जाते हैं। उम्मीदों का इतना बड़ा बवण्डर रच देते हैं कि- जैसे वह बच्चा न होके, कोई उत्पादक मशीन हो। जिस आयु में बच्चे का शारीरिक-मानसिक-काल्पनिक विकास होना होता है। उस आयु में उन्हें इन सबसे पृथक करके दमनात्मक कुचक्र में पिसने के लिए झोंक दिया जाता है। माता-पिता अपने दिखावे व श्रेष्ठता के लिए बच्चों के बचपन को खत्म कर उसे अपनी महत्वाकाँक्षाओं की पूर्ति करने वाला यन्त्र बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं।
बच्चा यह समझ ही नहीं पाता है कि उसके जीवन में यह सब क्यों और किसलिए हो रहा है? लेकिन वह उन पाटों में पिसने व प्रायोजित दिशा-निर्देशों के अनुसार चलने वाले ‘रोबोट’ की भाँति व्यवहार करने लग जाता है। बच्चों को यह भी नहीं पता होता है कि- वह खेल क्यों खेल रहा है? बस्ते का बोझ,डिजिटल गैजेट्स का प्रयोग व माता-पिता, स्कूल इत्यादि का उसके जीवन में क्या महत्व है।लेकिन उसे सॉफ्टवेयर की प्रोग्रामिंग के अनुसार चलाया जा रहा है। बच्चों को जिस आयु में स्वच्छंद खेलना चाहिए, वातावरण में घुलना -मिलना, चीजों का प्रत्यक्ष अनुभव होना चाहिए। और वरिष्ठ जनों तथा परिवार के सानिध्य में वात्सल्य की रसधार में गोते लगाना चाहिए। उस आयु में बच्चों को एक ‘रोबोट’ बनाया जा रहा है। इस तथाकथित आधुनिकता, प्रगति के आगे बच्चों के बचपन की खत्म किया जा रहा है। क्या यह एक गम्भीर सामाजिक क्रूरता व अपराध नहीं है?जहाँ बच्चों से उनका बचपन ही छीना जा रहा है।
आखिर! ज्ञबच्चों को उनके बचपने में ही धीर-गम्भीर व वरिष्ठ बनाने की यह सनक क्यों पाली जा रही है? क्या बच्चों के अबोध, निश्चल, पवित्र मन तथा मोम के पुतले से भी कोमल व प्यारे स्वरूप को नष्ट करते हुए क्या एक बार भी अन्तरात्मा नहीं काँपती होगी? समाज इस दिशा में कब सोचेगा? माता-पिता कब आधुनिक की अन्धी दौड़ के अन्धकार से निकलेंगे? समाज जागे। और बचपन का दमन नहीं बल्कि उसे खिलने दीजिए। बच्चों का बचपन बचाना एक अनिवार्य और सर्वाधिक महत्वपूर्ण कर्त्तव्य है। बचपन एवं बालमन की नैसर्गिकता को बचाए बगैर सुखद भविष्य की कल्पना करना ठीक वैसे ही है जैसे धरती व आसमान को एक करना।