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स्वामी विवेकानन्द की दृष्टि में राष्ट्र की रीढ़..!

स्वामी विवेकानन्द ने भारत के उस मर्म को छुआ जो कालखण्ड के प्रहार से पथभ्रष्ट होकर एक असाध्य रोग का रुप ले चुका था। वह था— ‘छुआछूत वाद’, गरीबी, भुखमरी और निम्न से निम्नतर समझी जाने वाली श्रेणियों के प्रति घ्रणा, वैमनस्य और अत्याचार की अन्तहीन प्रताड़ना।

स्वामी विवेकानन्द ह्रदय इस मानवीय पाशविकता से डोल गया। उनके अन्दर उसी समानुभूतिपूर्ण करुणा का ज्वार मथने लगा — जो उन असंख्य निर्दोष लोगों के जीवन को हीनतर बना रहा था। उन्होंने भारतीय समाज में व्याप्त इस व्याधि के उपचार के लिए केवल आह्वान ही नहीं किया, बल्कि उस कार्य में अपने जीवन के अन्तिम क्षणों! तक रत रहे आए।

ऐसा नहीं था कि उस समय समाज सुधार नहीं चल रहे थे, किन्तु उन सामाजिक सुधारों में सिध्दान्त और व्यवहार में पूर्णतः अन्तर पाया जाता था। साथ ही तथाकथित समाज सुधारकगण-वे समाज की इस दुर्दशा का ठीकरा हिन्दू धर्म पर फोड़कर अपनी असफलता छुपाने के लिए प्रायः यत्न करते रहते थे। और यहाँ तक कि- वे हिन्दू धर्म के नाश में ही समाज की उन्नति का एकमात्र उपाय मानते थे।

स्वामीजी ने इसका स्पष्ट खण्डन करते हुए कहा ― हिन्दू धर्म तो संसार भर के प्राणियों को आत्मा के विविध रुप बतलाता है। समाज की इस हीनावस्था का कारण है, इस तत्व (आत्मवत् सर्वभूतेषु) को व्यावहारिक आचरण में लाने का अभाव, सहानुभूति का अभाव,― ह्रदय का अभाव। यहाँ तक कि वे भगवान बुध्द का उदाहरण देते हुए कहते हैं – “भगवान एक बार फिर तुम्हारे बीच बुध्द रुप में आये, और तुम्हें गरीबों, दुखियों तथा पापियों के लिए आँसू बहाना और उनके प्रति सहानुभूति करना सिखाया; परन्तु तुमने उनकी बात पर ध्यान नहीं दिया।”

स्वामी जी ही एक ऐसे महापुरुष हुए हैं जिन्होंने सिध्दान्त व व्यवहार में एकरूपता की अलख जगाई। उन्होंने यह स्पष्ट घोषित किया और लोगों को यह समझाते हुए कहा कि – “जाओ, शास्त्रों के महान सत्यों को सरल कर उन्हें जाकर समझा दो। और यह बतलाओ कि ब्राह्मणों की भाँति उनका भी धर्म में समान अधिकार है। चाण्डाल तक को इस अग्निमन्त्र में दीक्षित करो और सरल भाषा में उन्हें व्यापार, वाणिज्य, कृषि आदि गृहस्थ जीवन के अत्यावश्यक विषयों का उपदेश दो। स्वामी जी ने यह गहन अनुभूति प्राप्त की, कि राष्ट्रजीवन का विकास तब तक सम्भव नहीं होगा। जब तक समाज में इस तरह की समस्याएँ भारत की श्रेष्ठ संस्कृति और सामाजिक शक्ति के संगठन को पतित बनाने के लिए चलती रहेंगी।”

उन्होंने देश को सम्बोधित करते हुए अभिजात वर्गों एवं उस समय के पद-प्रतिष्ठित समुदाय से जो कटुसत्य कहते हैं। वह आज भी उतना ही प्रासंगिक और अनुकरणीय है। क्योंकि उस सम्बोधन के मूल में भारत की उन्नति का रहस्य छुपा हुआ है। स्वामी जी राष्ट्र को सम्बोधित करते हुए कहते हैं ―
“ये जो किसान, मजदूर, मोची, मेहतर आदि हैं; उनकी कर्मशीलता और आत्मनिष्ठा तुममें से कइयों से अधिक है। ये लोग चिरकाल से चुपचाप काम करते जा रहे हैं, देश का धन-धान्य उत्पन्न कर रहे हैं, पर अपने मुँह से शिकायत नहीं करते। माना कि तुम लोगों की तरह पुस्तकें नहीं पढ़ी हैं, तुम्हारी तरह कोट-कमीज पहनकर सभ्य बनना उन्होंने नहीं सीखा, पर इससे क्या? वास्तव में वे ही राष्ट्र की रीढ़ हैं।”

स्वामी जी की यह भावना इसी बात की सूचक है कि — जिस प्रकार हमारे शरीर के किसी भी अङ्ग में व्याधि हो जाने पर शरीर तब तक गतिमान नहीं हो पाता है, जब तक कि उस व्याधि का उपचार न किया जाए। व्याधि की स्थिति में हम उस अङ्ग को काटकर अलग नहीं करते, बल्कि उसका विशेष ध्यान देकर उसे पहले की स्थिति में लाते हैं। अतएव ठीक इसी प्रकार — जब तक समाज की दुर्दशा रुपी इन व्याधियों का उपचार नहीं किया जाता, तब तक राष्ट्र का विकास असंभव ही है। ऐसी स्थिति में जो पीछे रह गए , पददलित व वंचित हैं। उन्हें आगे लाने का कार्यभार सबको अपने जिम्मे लेना ही होगा।

स्वामी जी कहते हैं – “उसी को मैं महात्मा कहूँगा, जिसका ह्रदय गरीबों के लिए रोता है, अन्यथा वह दुरात्मा है।” और इतना ही नहीं वे समाज को धिक्कारते हुए उस पर अपने दायित्वों को पूरा न करने तथा ‘शोषक’ की प्रवृत्ति के लिए कहते हैं ― “जब तक करोड़ों लोग भूखे और अशिक्षित रहेंगे, तब तक मैं प्रत्येक आदमी को विश्वासघातक समझूँगा, जो उनके खर्च पर शिक्षित हुआ है। परन्तु जो उन पर तनिक भी ध्यान नहीं देता! वे लोग जिन्होंने गरीबों को कुचलकर धन पैदा किया है और अब ठाठ-बाट से अकड़कर चलते हैं। यदि उन बीस करोड़ (उस समय) देशवासियों के लिए, जो इस समय भूखे और असभ्य बने हुए हैं, कुछ नहीं करते, वे घ्रणा के पात्र हैं।”

अपने उन बान्धवों से जो मुख्य धारा से वंचित होकर हीनतर जीवन की दुर्दशा को प्राप्त हुए उनसे स्वामीजी की यह प्रीति कितनी श्रेयस्कर और अनुकरणीय है। मेरे अनुभव में स्वामी जी के ह्रदय से निकलने वाली — यह वाणी भारतमाता का कारुणिक और क्षोभपूर्ण कातर स्वर है, जो स्वामीजी के मुख से मुखरित हुआ। आज हम देखें और चिन्तन करें कि हमने उन वंचित, पीड़ित, निम्न तर समझी जाने वाली श्रेणियों के लिए क्या किया? हम यह भी अवलोकन करें कि- हमने विवेकानन्द के विचारों को आत्मसात किया या उनका अनादर करते हुए उन्हें रद्दी की टोकरी में फेंक दिया? क्या हम अपने उन्हीं बान्धवों की पीड़ा से उसी तरह फूट-फूटकर रो! पड़ते हैं, जैसे विवेकानन्द का अन्तस रो! देता था?

हम स्वातन्त्र्य भारत के प्रभुत्व सम्पन्न विश्व की श्रेष्ठतम् संवैधानिक व्यवस्था के अङ्ग होते हुए भी क्या भारतीय संस्कृति की मूल व्यवस्था को लागू कर पाए ! सात दशकों की दीर्घावधि को पूर्ण करने के बावजूद क्या हम उन लक्ष्यों को प्राप्त कर पाए, जिन्हें स्वामीजी ने हमारे कन्धों और ह्रदय को सौंपा था? चारो ओर हम आँकलन करें, अपनी दृष्टि को गिरि-कन्दराओं, वन-प्रान्तर, ग्राम्य, नगरों और महानगरों की ओर मोड़ें तो क्या पाते हैं? जिन्हें स्वामीजी ने – ‘राष्ट्र की रीढ़’ कहा क्या वह सुखी और सम्पन्न है? क्या उसकी आँखों के अश्रु मिट गए हैं ? या वह अब भी अपनी उसी जरावस्था में जीवन बिता रहा है? क्या उनकी उन्नति के बिना भारत की उन्नति संभव है? जरा, इन प्रश्नों को मन में टटोलें।

वर्तमान दौर में क्षुद्र स्वार्थों चाहे वे राजनैतिक हों या कि आर्थिक लोभ के; किन्तु आज सबके निशाने पर वही राष्ट्र की रीढ़ माने जाने वाले लोग हैं। उनके कन्धों में अपनी बन्दूक रखकर भारत को खण्डित करने का स्वप्न, सनातन हिन्दू धर्म को नष्ट करने ,धर्मान्तरण (कन्वर्जन) के षड्यन्त्र चलाए जा रहे हैं। अतएव इन आसुरी शक्तियों के प्रतिकार के लिए — हमें स्वामी विवेकानन्द की शरणस्थली में जाना ही उचित दिशाबोध प्राप्त कराएगा। जैसा कि तब भी और अब भी परस्पर जातीय संघर्ष के लिए उन्माद फैलाया जाता था‌। उस समय इस उन्माद पर स्वामीजी का दर्शन और समाधान कितना चिरकालिक सुस्पष्ट, और सजीव है― “वे कहते हैं नीची जातियों को ऊपर उठाने के लिए उच्च जातियों को नीचा करने से नहीं, बल्कि उन्हें भी उनके ही बराबर ऊँचा उठाने के लिए प्रयत्न करना होगा।” वे जब गरीबों की दैन्यता-हरण की बात करते हैं, तब अमीर से छीनने का नहीं बल्कि सभी को सदाशयता के साथ अग्रसर होने और सम्पूर्ण ‘गरीबी’ के उन्मूलन के लिए प्रेरित एवं पथप्रदर्शित करते हैं।

स्वामी जी कहते हैं— यदि गरीब अपनी बदहाली के कारण स्कूलों और पाठशालाओं में नहीं आ सकते तो उन्हें उनके घर में जाकर शिक्षा दो। वे बार-बार याद दिलाते हैं कि ― ‘याद रखो राष्ट्र झोपड़ी में बसा है।’ अब यहाँ झोपड़ी का क्या निहितार्थ है? झोपड़ी किसका प्रतीक है? झोपड़ी यहाँ सभ्यता एवं संस्कृति की प्रतीक है। यहाँ वे भारत के मूलस्वभाव की बात करते हैं। स्मरण रहे कि भारत की महान बौध्दिक सम्पदा का सर्जन करने और नानाविध आध्यात्मिक ज्ञान कोष से सशक्त करने वाले — ऋषि-महर्षि किन्हीं राजमहलों में नहीं, बल्कि गिरि-कन्दराओं और भौतिक चकाचौंध से दूर कुटिया बनाकर निवास करते थे; और वहीं से ज्ञानामृत के स्त्रोतों को प्रवाहित किया।

भले ही नागरीय जनजीवन एवं भौतिक चकाचौंध की रोशनी से जगमगाते हुए वातावरण में ‘भारतीय धर्म एवं संस्कृति के दर्शन’ नहीं होंगे। लेकिन अपनी गरीबी, विपन्नता, दैन्यता के बावजूद भी भारत के वनांचलों, ग्राम्य और पददलित शहरी क्षेत्रों में जहाँ का जीवन निकृष्टतम् माना जाता है; वहाँ भारतीयता, सभ्यता-संस्कृति, जीवनादर्शों की विविधवर्णी झलक विद्यमान मिलेगी। बस उसी की संयुक्त युति – झोपड़ियों में बसने वाले राष्ट्र और उसकी रीढ़ को सीधी और सशक्त करने के लिए; जितनी स्वामी जी के कालखण्ड में आवश्यकता थी, उससे कहीं अधिक वर्तमान में है।

स्वामीजी बारम्बार आह्वान करते हुए कहते हैं-
“क्या तुम जनता की उन्नति कर सकते हो?उनकी स्वाभाविक आध्यात्मिक वृत्ति को बनाए रखकर, क्या तुम उनका खोया हुआ व्यक्तित्व लौटा सकते हो?क्या समता, स्वतन्त्रता, कार्य-कौशल तथा पौरुष में तुम पाश्चात्यों के गुरु बन सकते हो? क्या तुम उसी के साथ -साथ स्वाभाविक आध्यात्मिक अन्त:प्रेरणा तथा अध्यात्म -साधनाओं में कट्टर सनातनी हिन्दू हो सकते हो? यह काम करना है और हम इसे करेंगे ही।”

स्वामीजी जब ‘स्वाभाविक आध्यात्मिक वृत्ति’ को बनाए रखते हुए उन्नति की बात करते हैं, तब उसमें भारत के मूलस्वभाव को बनाए रखते हुए समुचित विकास की प्रेरणा है। वे सिर्फ़ निरी भौतिक उन्नति से राष्ट्र का विकास और सशक्तिकरण असंभव मानते हैं। उपर्युक्त उध्दरण के अन्त में स्वामी जी ने जो अन्तिम वाक्य प्रयुक्त किया है ‘यह काम करना है और हम इसे करेंगे ही।’- में आह्वान के स्थान पर संकल्प और दृढ़प्रतिज्ञ होने की भावना है।

अस्तु उनके शाश्वत विद्युतमय विचार जब तक मानवीय जीवन का अस्तित्व इस पृथ्वी पर बना रहेगा, तब तक दीन-हीन, पतित, निरीह, शोषित-दमित – जनमानस के लोकल्याण की प्रेरणा और मार्गदर्शन लेने के लिए स्वामी विवेकानन्द की विचारसरणी में गोता लगाने के लिए अवश्य आना पड़ेगा। हालाँकि इसमें उतनी ही सतर्कता भी वाँछनीय है, क्योंकि विवेकानन्द के ऊर्जस्वित विचार- दम्भी-पाखण्डी और स्वांगों का कलेवर क्षण! भर में उतार देते हैं। विवेकानन्द का मार्ग सत्य और धर्म पर आश्रित है, जो बिना किसी आडम्बर तथा भेदभाव के; भारत के ‘स्व’ के अनुरूप सभी की उन्नति के माध्यम से राष्ट्र के सशक्त, सर्वसमर्थ और जनकल्याण की ओर दिशा -निर्देशित करता है!!

कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल
(कवि,लेखक,स्तम्भकार)
सम्पर्क-9617585228