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28 नवम्बर समरसता के प्रणेता महात्मा फुले

पूना (महाराष्ट्र) में एक अत्यन्त गरीब परिवार में जन्में सामाजिक सुधार के आदि प्रवर्तक महात्मा ज्योर्तिबा फुले ने विरोध की परवाह किये बिना स्थान-स्थान पर विद्यालयों की स्थापना के साथ-साथ सामाजिक सांस्कृतिक आन्दोलन का नेतृत्व किया। ग्रंथों, पुस्तकों, कविताओं का लेखन कार्य जारी रखते हुये अतिशूद्र माने जाने वाले समाज की कन्याओं एवं महिलाओं के लिये पाठशालाओं की स्थापना का क्रान्तिकारी कदम उठाया।

इस महापुरूष ने समाज सुधार, धर्म, समाजसेवा, महिला शिक्षा, विधवा उद्धार, छुआछूत , किसान-मजदूर आन्दोलन, अछूतोद्धार, मानवीय समानता, समरसता, अंधविश्वास की जड़ों को समाप्त करने अहर्निशि जुटकर अपना पूरा जीवन समर्पित कर किया। इस समरसता के महान साधक महात्मा ज्योतिबा फुले का जन्म 11 अप्रैल 1827 को पूना के पास खानवाड़ी ग्राम में एक अत्यन्त सामान्य कृषक परिवार में हुआ था। एक वर्ष की आयु होने पर माता के देहान्त के कारण उनके पालन पोषण का भार पिता पर आ पड़ा और दलितवर्ग के उत्थान के लिये एक अभियान की शुरूआत की। इसके साथ ही धर्म और संस्कृति के मूल स्वरूप के शोध के लिये एक महान परम्परा का शुभारम्भ किया। ज्योर्तिबा के पिता ने भी अपनी गरीबी की परवाह न करते हुये अपने पुत्र की निष्ठा और परिश्रम के साथ अपने कर्तव्यों का निर्वाह किया। इससे यह सिद्ध हो गया कि विद्या और ज्ञान किसी एक वर्ग की थाती नहीं है। उसका लाभ जो चाहे ले सकता है।

जिस समाज सेवा की दिशा में वे चल पड़े थे, उसमें एक घटना ने तूफानी क्रान्ति ला दी।  वे अपनी एक ब्राह्मण मित्र के आग्रह पर उसकी बारात में शामिल होने चले गये। लेकिन वहाँ माली जाति-वर्ग का होने के कारण उपहास और विरस्कार का पात्र बनना पड़ा। उसी क्षण ज्योतिबा ने संकल्प लिया कि जब तक समाज में जाति संबंधी ऊँच-नीच की बुराईयाँ विद्यमान है, तब तक इन बुराईयों को समाप्त करने तक प्रयासरत रहेंगे।

उन्होंने अपनी अशिक्षित पत्नी को भी पढ़ाया। इस उद्देश्य को लेकर कि वह उनके जीवन पथ पर उनके संकल्प को पूरा करने में सहयोगी सिद्ध होगी। उन्होंने महिला शिक्षा के लिये भी अनेक प्रयास प्रारम्भ कर दिये। उन्हें साथियों एवं सशक्त वर्ग द्वारा विरोध किये जाने पर समझाने का प्रयास किया लेकिन उनके सुझाव के प्रत्युत्तर बने थे, शिवाजी ने कई किले मुगलों से छीन लिये थे, सन्त ज्ञानेश्वर ने ज्ञानेश्वरी टीका तैयार कर दी थी। मेरी अवस्था इसी काम के लिये है। यदि नेकी की राह पर चलते हुये मृत्यु मिले तो उससे भी मुझे संतोष ही होगा। ज्योतिबा ने कन्या शिक्षा के अपने प्रयास जारी रखे। स्थान-स्थान पर कन्या शालाओं की स्थापना करायी। यद्यपि उस समय उच्च वर्ग कन्याओं को स्कूल भेजने के पक्ष में नहीं था। उनकी खूब आलोचना हो रही थी, मार डालने की धमकी दी गयी। महिलाओं की दशा अत्यन्त चिन्ता जनक थी। धार्मिक अंधविश्वास एवं पाखण्ड का अधिक प्रभाव था।

मार्टिन लूथर, प्रो. विल्सन, विलियम जोन्स आदि का साहित्य पढ़ने के बाद वे इस निश्चय पर पहुंचे कि जब तक पिछड़े समाज के लोगों में बुद्धि, स्वाभिमान और  सामथ्र्य  का निर्माण नहीं होगा, तब तक इस समाज का कल्याण सम्भव नहीं है। अतः ज्योतिबा उस दिशा में सक्रिय हो गये। सन् 1855 में लिखा नाटक तृतीय रत्न, 1872 में गुलामगिरी ग्रंथ का व्यापक प्रभाव पड़ा। सन् 1873 में सत्यशोधक समाज की स्थापना की।

सन् 1855 में लिखी ‘‘अछूतों की कैफियत’’ नामक पुस्तक ने चमत्कार ही कर दिया। वीर शिवाजी और जार्ज वाशिंगटन के जीवन से वे बहुत प्रभावित थे। इन्हीं दिनों उन्हें सर थामस द्वारा लिखी पुस्तक ‘‘मानव का अधिकार’’ पढ़ने को मिल गयी। इस पुस्तक ने उन पर मिट प्रभाव छोड़ा। इस पुस्तक ने उनके मन में गुलामी के प्रति एक विशेष प्रकार का आक्रोश भर दिया। उन्होंने अपने पिछड़े और दलित बंधुओं  की अज्ञानता को दूर करने के लिए अंतिम क्षणों तक अपने पूरे प्रयासों को गति देते रहे। सन् 1890 के 28 को इस महामानव ने इस संसार से विदा ले ली। वे अपना पूरा जीवन धर्म और समाज की सेवाओं में खपाकर सदा के लिये अमर हो गये। उनकी समाज सेवा सदा के लिये प्रेरणादायक और स्मरणीय रहेगी। आगे चलकर 14 अप्रैल 1891 को जन्में दलितों के मसीहा बाबा साहब अम्बेडकर ने भी उसी राह पर चलते हुये महात्मा फुले के सपनों को साकार किया। डाॅ. अम्बेडकर ने यह भी कहा कि महात्मा फुले का अनुयायी कहलाने में मुझे गौरव का अनुभव होता है। उन्होंने इस महान विभूति को अपना तीसरा गुरू माना था।

– डाॅ. किशन कछवाहा