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धर्म और मानवता के लिये शहीद श्री गुरू तेग बहादुर

औरंगजेब ने सत्ता सम्हालते ही अपने मातहत सूबेदारों को निर्देश जारी किये थे कि देश की हिन्दू जनता को इस्लाम स्वीकार कराओ, ऐसा न करने पर उन्हें कत्ल कर दिया जाये। परिणाम स्वरूप भारी अत्याचार प्रारम्भ हो गये थे। अन्य सूबेदारों की अपेक्षा कश्मीर के मोहम्मद भीषण अत्याचार प्रारम्भ कर दिये। परिणाम स्वरूप काशी, मथुरा, अयोध्या तथा कश्मीर के साहसी हिन्दू वीरों ने पवित्र अमरनाथ गुफा में एकत्रित होकर निर्णय लिया कि गुरूनानक देव की गद्दी पर आसीन गुरूतेगबहादुर जी से इस बावत् परामर्श किया जाये और उनसे परामर्श एवं सहयोग की याचना भी की जाये। गुरूजी ने प्रतिनिधिमंडल की पीड़ा को गम्भीरता से समझा और सहयोग का पूर्ण आश्वासन भी दिय। उस समय गुरूगोविन्द सिंह की आयु लगभग 9-10 वर्ष की रही होगी। उन्होंने यह बात सुन ली कि औरंगजेब कट्टरवादी और अत्याचारी शासक है। वह हिन्दुओं पर बड़ा अत्याचार कर रहा है। श्री गुरूतेगबहादुर भी स्वयं मुगलों के अत्याचारों को झेलते हुये शहीद हुये थे। उन्होंने गंभीर परिस्थितियों पर गहन विचार विमर्श किया। मुगलों के दारूल इस्लाम बनाने के दुष्कृत्यों को रोकने के लिये सिर्फ एक ही मार्ग था कि कोई महापुरूष देश और धर्म की रक्षा के लिए अपना आत्मबलिदान दे। इसका समाधान उनके 9-10 वर्षीय पुत्र गोविन्द सिंह ने ही कर दिया और उन्होंने पिताजी से कहा, इस कार्य के लिये आपसे बेहतर महापुरूष कौन हो सकता है।

‘‘तिलक और जनेऊ की प्रभुता की रक्षा के लिये उस कालखं में श्री गुरूतेगबहादुर ने अपने बलिदानी दस्ते के साथ अतुलनीय बलिदान दे दिया। शीश दे दिया लेकिन सनातन धर्म के अमर संदेश को अपमानित नहीं होने दिया। उन्हें उनके साथियों सहित कैदकर दिल्ली लाया गया। इस्लाम स्वीकार कर लेने पर भारी दबाव डाला गया, अमानुषिक अत्याचार भी किये गये। सुख-सम्पदा संबंधी अनेकानेक प्रलोभन भी दिये गये। पर वे अडिग रहे। दिल्ली के चाँदनी चौक में उनकी आँखों के सामने भाई मतिदास को आरे से बीचों बीच चीर दिया गया, भाई दियाला को खौलते तेल में उबाल दिया गया और सतीदास को रूई के ढेर में बाँध कर जला दिया गया। लेकिन इस आत्मबलिदान ने पूरे देश में एक नयी लहर और चेतना जगा दी।’’

दशमगुरू श्री गोविन्द सिंह ने इस महान बलिदान पर कहा कि –

‘‘तिलक जंजू राखा प्रभ ताका।
किनो बड़ो कलू महि साका।
साधन हेति इति जिनि करी।
शीश दिया पर सी न उचरी।’’

उन्होंने त्याग और संयम ही राह दिखाई थी। वे तो सदैव सृजन, समरसता और मन के विकारों पर विजय करने की ही चर्चा करते थे। उन्हों त्याग शौर्य और बलिदान का मार्ग दिखाया। वे गुरूनानक देव जी द्वारा स्थापित गुरू-सिख परम्परा के नौवें आधार स्तम्भ थे। उनका जन्म बैसाख मास की पंचमी सम्वत् 1678 को श्री गुरू हरगोविन्द साहिब जी एवं माता जानकी के घर अमृतसर में हुआ था।

गुरू श्री तेगबहादुर जी का व्यक्तित्व बहुआयामी था। उनकी जिस गाँव से यात्रा गुजरती वहाँ के लोगों को जल स्त्रोतों के लिये प्रेरणा देते, वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाने, अंधविश्वास से मुक्ति की प्रेरणा देते। गाँव के लोगों को स्वच्छता का संदेश देते, धार्मिक आधार पर मतभेदों अवसर न लड़ने का भी संदेश देते थे। तम्बाखू की खेती न करने की सलाह देते। उन्होंने एक बड़े क्षेत्र को नशा मुक्त बनाया।

गुरूजी ने करतारपुर में मुगलों से 14वर्ष की आयु में ही युद्ध किये। बीस वर्ष से अधिक समय तक एकान्त साधनायें भी की। उनकी अनेक वैराग्यमय रचनायें श्री गुरू ग्रंथ साहिब में मौजूद हैं। वे एक साधक और समाज सुधारक थे। वे एक क्रान्तिकारी महापुरूष थे। उन्हें वीरता, दृढ़ता, मानवता के लिये सर्वस्त त्याग और बलिदान की भावना विरासत में ही मिली थी। तेग यान तलवार की कुशलता का परिचय देने के कारण ही उनका नाम ‘‘तेगबहादुर’’ अर्थात् तलवार में सिद्धहस्त नाम पिता जी द्वारा दिया गया था।

मुगल आक्रान्ताओं के बर्बर अत्याचारों से देश की सांस्कृतिक अस्मिता की रक्षा करने गुरू परम्परा के नवम गुरू तेग बहादुर ने अपनी आत्माहुति देकर मुगल सत्ता को सीधी चुनौती दी थी तथा इस बलिदान से पूरे देश को असाधारण शिक्षा और संदेश दिया। मध्यकालीन दशगुरू परम्परा गुरूनानक देव के प्रारंभ हुयी थी जिसकी समाप्ति दशम गुरू गोविन्द से हुयी। प्रत्येक व्यक्ति वर्तमान में रहते हुए अतीत से जुड़ा रहता है और भविष्य के प्रति चिन्तनशील रहते हुये सजग रहता है। यह विरासत अनौखी थी। गुरू नानकदेव ने स्वयं एक आदर्श इंसान का जीवन जीते हुये धर्म और समाज व्यवहारिक रूप में परिभाषित किया। उन्होंने वैचारिक तौर पर भी अपने विचारों और व्यवहार के माध्यम से कट्टरता का विरोध किया।

सनातन धर्म की रक्षा के लिये ही खालसापंथ को पृथक बनाया गया। यदि इसके लिये नौवें गुरू अपना शीश नहीं देते तो औरंगजेब किसी हिन्दू को इस भारत की धरती पर नहीं रहने देता तथा पकड़-पकड़ कर अपने क्लेच्छ मजहब इस्लाम में मिला लेता। पाँच सौ वर्ष का सिख इतिहास इस तथ्य का जीवन्त प्रमाण है कि भारतीय समाज एक था।

गुरू तेगबहादुर के अद्भुत शौर्य और बलिदान की स्मृति में चाँदनी चौक में बना शीशगंज गुरूद्वारा आज भी हमें यह संदेश देता है कि जो देह की अपेक्षा अपनी आत्मा और धर्म को अधिक मूल्यवान मानता है, उसका यश अमर और शाश्वत हो जाता है।

– डॉ. किशन कछवाहा