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पंजाब केषरी लाला लाजपत राय

-डाॅ. किशन कछवाहा

‘पंजाब केशरी’ के नाम से प्रख्यात महान स्वतंत्रता सेनानी, समाज सेवक, कर्मयोगी, दीन दुःखियों के हित चिन्तक, हिन्दू आदर्श के महान योद्धा, लाला लाजपत राय के विचार और मार्गदर्शन आज भी नई पीढ़ी के लिए प्रेरक हैं। ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ भारत की आजादी के लिए मां भारती के इस सपूत ने जो अलखयी दुनिया को युगों तक याद किया जाएगा।

बहुमुखी प्रतिमा के धनी लाला लाजपत राय कांग्रेस के गरम दल के तीन प्रमुख नेताओं लाल-बाल-पाल में से एक थे। उन्हें देश पंजाब केशरी के नाम से भी पहचानता रहा है। इस प्रख्यात स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के विचार आज भी हम सबके लिये प्रेरणा स्त्रोत हैं। वे महान समाज सेवी और प्रख्यात समाज सुधारक भी थे। वे अछूतोद्धार के मार्गदर्शक-प्रेरक नेता थे। उनकी शहादत ने स्वतंत्रता आन्दोलन को न केवल मजबूती दी, वरन् चन्द्रशेखर आजाद, भगतसिंह, राजगुरू, सुखदेव व अन्य क्रान्तिकारियों ने उनकी मृत्यु का बदला लेने का दृढ़ संकल्प लिया।

 लाला लाजपत राय का जन्म 28 जनवरी सन् 1865 को जिला फीरोजपुर (पंजाब) के ठोड़ी ग्राम में हुआ। वे बचपन से कुशाग्र बुद्धि छात्र थे। उन्होंने 15 वर्ष की आयु में ही मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण कर ली थी फिर लाहौर गवर्नमेंट काॅलेज से एफ.ए. के साथ कानून की पढ़ाई भी प्रारम्भ कर दी। ‘‘लाॅ’’ की पढ़ाई होने के बाद आपने लाहौर हाईकोर्ट में वकालत करना शुरू कर दिया।

आपने गुरूदत्त जी और हंसराज जी के साथ उत्साह के साथ आर्य समाज के सेवा कार्यों में संलग्न होकर एक बड़े समाज सुधारक की भूमिका का निर्वाह किया। सन् 1886 में महर्षि दयानन्द की स्मृति में लाहौर में प्रारंभ किये गये डी.ए.बी. काॅलेज के लिये तन-मन-धन से योगदान दिया। आर्य समाज की शिक्षा के प्रभाव से लालाजी दरिद्रनारायण की सेवा के लिये हर समय अग्रसर रहा करते थे। सन् 1896 में तत्कालीन संयुक्त प्रान्त (अब उत्तरप्रदेश) के आगरा- बुन्देलखण्ड क्षेत्र में तथा सन् 1900 में राजस्थान में भयंकर अकाल की स्थिति निर्मित हो गयी थी। फिर 1907-08 में मध्यप्रदेश में भी वैसी ही दुर्भिक्ष की स्थिति बन गयी थी। ईसाईयों ने इस स्थिति का लाभ उठाते हुये मतान्तरण की कोशिश की। हजारों हिन्दू विधर्मी होने लगे थे। लाला जी ने इन विकट स्थितियों में अपने सहयोगियों स्वयंसेवकों को साथ लेकर सहायता और राहत कार्य प्रारंभ कराये जिससे हजारों हिन्दुओं को विधर्मी होने से बचाया जा सका। तपेदिक के रोगियों के लिये भी समुचित व्यवस्था करायी। इतना ही नहीं लालाजी ने अपनी स्वर्गीय पत्नी की स्मृति में लाहौर में (अब पाकिस्तान) गुलाबदेवी तपेदिक अस्पताल की स्थापना की। विभाजन के बाद जालंधर में इसी प्रकार के चिकित्सालय की व्यवस्था पुनः प्रारम्भ करायी। आपने पंजाब नेशनल बैंक और लक्ष्मी बीमा कम्पनी की स्थापना भी की थी। सन् 1888 में कांग्रेस के ‘प्रयाग सम्मेलन’ में शामिल हुये, तब उनकी उम्र महज 23 साल थी। स्वतंत्रता आन्दोलन में भागीदारी बढ़ी तो उन्होंने वकालत करना छोड़ दिया। अब देश को अंग्रेजों के चंगुल से छुड़ाना एकमात्र उद्देश्य बना लिया था।

सन् 1912 में लालाजी का स्वास्थ्य खराब हो गया था। वे चिकित्सकों के परामर्श पर हिमाचल प्रदेश के सोलन में स्वास्थ्य लाभ ले रहे थे। साथ ही यहाँ से स्वराज दल का काम भी संचालित कर रहे थे। उन्हें यहाँ समाचार मिला कि आगा खाँ आर्थिक प्रलोभन के माध्यम से अछूत कहे जाने वर्ग का धर्म परिवर्तन कराकर मुस्लिम बना रहा है। यह अभियान तेज गति से पंजाब में ही नहीं पूरे भारत में चलाया जा रहा है। इस सूचना ने उन्हें झकझोर दिया। वे चिन्तित हो गये। यदि ऐसा होता रहा तो हिन्दू समाज सिमटता चला जायेगा। उन्होंने इस अस्वस्थता की अवस्था में ही ईश्वर से प्रार्थना की और साम्प्रदायिकता के इस विध्वंश को समाप्त करनेकी दृष्टि से अछूतोद्धार आन्दोलन का बिगुल फूंक दिया, उनके द्वारा इस विषय पर पत्र- पत्रिकाओं में लेख लिखे गये और जगह-जगह सार्वजनिक सभाओं का आयोजन उनके आव्हान पर होने लगा। बड़ी संख्या में लोग इन कार्यक्रमों में जुड़ने लगे। कलकत्ता से जुगलकिशोर बिड़ला ने हर तरह की मदद की पेशकश भी की। गरीबों की दशा सुधारने गृह उद्योग प्रारम्भ कराये गये। दिल्ली एवं अन्य स्थानों पर मदद के लिये कार्यालय भी खोले गये। दलितों की घर वापिसी हुयी। परिणाम स्वरूप दलित बंधुओं की आर्थिक स्थिति में सुधार भी आया। उनके रहने के लिये बस्तियाँ भी बसाई गयीं।

 इससे प्रेरणा लेकर कांग्रेस ने भी इस दिशा में कार्य को आगे बढ़ाया। तत्पश्चात हरिजन सेवक संघ के माध्यम से आगे के लिये कार्यक्रम बनाये गये। ये प्रयास दर्शाते हैं कि लालाजी ने अपनी अस्वस्थता की स्थिति में भी देवसेवा के कार्यों को आगे बढ़ाने में तन-मन-धन से भारी सहयोग किया। तपेदिक के रोगियों के औषध उपचार और खुले स्वच्छ वातावरण में रहने, उनके भोजन, निवास आदि की समुचित व्यवस्था पर हमेशा ध्यान देते रहे। कांग्रेस का प्रचार करने तथा विदेशों में भारत की दशा से परिचित कराने तथा भारत की आजादी के आन्दोलन में सहयोग, सहायता और सहानुभूति प्राप्त कराने के लिये लालाजी ने अनेक बार यूरोप- अमरीका की यात्रा की। प्रथम विश्व युद्ध के समय तो उनके भारत वापिस आने पर रोक तक लगा दी गयी थी। जब वह लौटे तब कांग्रेस का नेतृत्व गांधी के हाथ आ चुका था। लालाजी ने इसमें पूरा सहयोग दिया। सन् 1919 में गांधी जी ने असहयोग कार्यक्रम पर विचार करने के लिये कलकत्ता में विशेष अधिवेशन आयोजित कराया, उसकी अध्यक्षता के लिये लालाजी को ही चुना गया। इसके बाद लालाजी के सहयोग से सविनय अवज्ञा आन्दोलन ने पंजाब सहित देशभर में जोर पकड़ा। सन् 1921 में लालाजी को गिरफ्तार कर लिया गया और लाहौर जेल में दो वर्ष की सजा बतौर रखा गया।

इसके बाद देश की राजनीति में परिवर्तन आने लगा। साम्प्रदायिक दंगे प्रारम्भ हो गये और दूसरी ओर गांधी जी के पंच सूत्रीय बहिष्कार कार्यक्रम की व्यर्थता को देख जेल से लौटकर आये नेताओं ने उस पर पुनर्विचार किया। इसी के चलते स्वराज्य पार्टी का जन्म हुआ। पंजाब का नेतृत्व लालाजी को सौंपा गया। लालाजी के मतभेद कांग्रेस से बढ़ते चले गये। क्योंकि गांधी जी सहित अन्य कांग्रेसी नेताओं की नीति अत्यधिक मुस्लिम पक्षीय थी। हिन्दू हितों की खुलेआम अवहेलना हो रही थी। कोकोनाडा कांग्रेस अधिवेशन से अध्यक्ष पद से मौलाना मुहम्मद अली ने कहा देश का बंटवारा कर दिया जाय। लालाजी के इस प्रस्ताव से अत्यन्त दुःखी और अप्रसन्न थे।

देश में राजनीतिक जागरण पैदा करने के उद्देश्य से लालाजी ने लाहौर में तिलक स्कूल ऑफ पालिटिक्स की स्थापना की उर्दू में ‘‘वन्देमातरम्’’ दैनिक का शुभारम्भ और ‘पीपुल्स’ नामक अंग्रेजी साप्ताहिक का प्रकाशन प्रारम्भ कराया।यह पत्र राजनीति की दिशा तय करने वाला पत्र साबित हुआ। लालाजी ने अनेक पुस्तकों के लेखन का कार्य भी किया जिसमें ‘अनहेप्पी इंडिया’ अत्यधिक लोकप्रिय रही।

 ब्रिटिश सरकार द्वारा नियुक्त पूर्ण अंग्रेजों का कमीशन जिसे ‘साईमन कमीशन’ कहा गया -भारत की वैधानिक योग्यता की जांच के लिये गठित किया गया था। सन् 1928 में भारत आना तय हुआ। कांग्रेस ने इसके पूर्ण बहिष्कार की घोषणा की। 30 अक्टूबर को कमीशन लाहौर पहुंचा, उसके बहिष्कार का नेतृत्व लालाजी ने किया। भारी जुलूस के साथ ‘साईमन वापिस जाओ’ के नारे के साथ स्टेशन पर भारी विरोध किया गया। यद्यपि जुलूस अत्यन्त शांत एवं अनुशासित था लेकिन अधिकारियों के निर्देशन पर भारी पैमाने पर जुलूस को तितर-बितर करने के लिए लाठी चार्ज किया गया। इस लाठी चार्ज में लालाजी को खास तोैर पर निशाना बनाया गया। स्वयं सीनियर सुपिरिटेन्डेन्ट स्काट और उसका एक अन्य सहायक साण्डर्स भी इस कठोर कार्यवाही में शामिल था। लालाजी ने बड़े साहस और धीरज के साथ लाठी प्रहारों को सहा और ललकार कर पुलिस अफसरों का नाम पूछा-इस पर और अधिक डंडों से प्रहार किया गया। इस हमलों से 64 वर्षीय लालाजी पुनः चारपायी से न उठ सके। जनता द्वारा इस कांड की खुली जांच की मांग भी की गयी, पर नौकरशाही का रवैया तानाशाहों जैसा बना रहा। 16 नवम्बर को उनकी हालत ज्यादा बिगड़ गयी। 30 अक्टूबर की शाम को लालाजी अपने प्रभावी उद्बोधन में जो शब्द कहे थे वे सचमुच ब्रिटिश अत्याचारी शासन के लिये भयंकर चेतावनी भरे थे और इतिहास में स्मरणीय बन गये। आपने कहा था ‘‘मुझ पर किया गया प्रत्येक प्रहार ब्रिटिश साम्राज्य के कफन की एक-एक कील सिद्ध होगा।’’ 17 नवम्बर को प्रातःकाल देश का यह अदम्य साहसी नेता, देश सेवक, बहुमुखी प्रतिभाशाली नेता समूचे देश को शोकसागर में डुबोकर मातृभूमि से बिदा हो गया। यह दिन था 17 नवम्बर 1928।