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मप्र के आठ जिलों तक पहुंच रहीं आदिवासियों की बनाई बावेर घास की रस्सियां…

नरसिंहपुर : मप्र के आठ जिलों तक पहुंच रहीं आदिवासियों की बनाई बावेर घास की रस्सियां
मध्यप्रदेश के नरसिंहपुर जिले में भरिया- आदिवासी समाज के लोग जंगल में ऊगने वाली सावई घास (बावेर) से रस्सियां बनाकर न केवल अपनी आय बढ़ा रहे है बल्कि आत्मनिर्भर भी बन रहे है।

वे वन विभाग के सतपुड़ा बावेर रस्सी केंद्र में तो रस्सियां बना ही रहें है अपनी निजी 75 मशीनों से भी कार्य कर रहे हैं। ग्रामीणों द्वारा बनाई रस्सियां वन विभाग के जरिए प्रदेश के 8 जिलों तक सप्लाई हो रही हैं।

खास यह है कि आदिवासी रस्सी बनाने का यह हुनर अपने बच्चों को भी सिखा रहे हैं ताकि वे किसी पर निर्भर न रहें। जिले के सुदूर वनक्षेत्र गोटीटोरिया से लगे वन ग्रामों में रहने वाले आदिवासी-भरिया समाज के लोगों को जंगल में होने वाली सावई घास के जरिए रोजगार देने वन विभाग ने वर्ष 2003 में यहां सतपुड़ा बावेर रस्सी केंद्र की शुरूआत की थी।

जिसके लिए विभाग ने घास से रस्सी निर्माण के लिए 41 मशीनों बुलाई जिससे शुरूआती दौर में 15 आदिवासी परिवार जुड़े। अब इस केंद्र से ग्राम बड़ागांव, भातौर, भैंसा, पटकना, भिलमाढाना, ग्वारी, भटिया, रातेर जैसे कई गांव जुड़े है। साथ ही 41 परिवार नियमित तौर पर केंद्र में आकर रस्सी का निर्माण कर रहे है।

घास के साथ रस्सी के भी मिलते हैं दाम : जंगल से ग्रामीण जो घास लाते है उसे वन विभाग 15 रुपये 24 पैसे की दर पर लेता है और गोदाम में स्टोर की जाती है। रस्सी बनाने ग्रामीण तीन तरह की मशीनों का उपयोग करते है। केंद्र में बिजली से चलने वाली मशीन है जिससे बनी रस्सी को विभाग 21 रुपये 90 पैसा की दर पर लेता है।

वहीं पैडल मशीनों से बनी रस्सी को 22 रुपये 90 पैसा और जो ग्रामीण अपनी ही घास से घरेलू मशीनों के जरिए रस्सी बनाकर लाते है उन्हें 38 रुपये किलो का दाम दिया जाता है। ग्रामीण एक क्विंटल घास में करीब 95 किलो रस्सी बनाते है जो 130 से 150 मीटर लंबी होती है। एक दिन में एक ग्रामीण करीब 10 किलो तक रस्सी बना लेता केंद्र के गोदाम में जो घास स्टाक की जाती है।

वह ग्रामीणों को बिना कोई दाम लिए करीब 100 क्विंटल तक दी जाती है। सतपुरा बावेर रस्सी केंद्र का संचालन करने भी एक स्वतंत्र समिति बनी है। एसडीओ वन प्रमोद चौपड़े बताते हैं कि अक्टूबर से मई-जून तक घास आती है और रस्सी का कार्य चलता रहता है, घास का स्टाक भी रहता है।

समिति के अध्यक्ष कंछेदी पाल, उपाध्यक्ष छोटीबाई, सहसचिव मुकेश नागवंशी आदि कहते है कि इस कार्य ने सभी ग्रामीणों के जीवन स्तर में बदलाव ला दिया है, हर परिवार की आय बढ़ी है। यह कार्य ऐसा है कि जिसने जितनी मेहनत की उसे उतना फायदा मिलता है, समय का भी कोई बंधन नहीं।

ग्रामीणों ने ही खरीद लीं करीब 75 मशीनें : वनपाल विवेक तिवारी बताते हैं कि रस्सी निर्माण में ग्रामीणों का पूरा परिवार योगदान देता है। जब जिसको वक्त मिलता है वह केंद्र पर या अपने घर पर रस्सी बनाता है। इस कार्य से ग्रामीणों की नियमित आय के अलावा अतिरिक्त तौर पर आय बढ़ी है। इसलिए सभी इसे पूरी मेहनत और लगन से करते है।

यही वजह है कि वनग्राम के लोगों ने ही अपने घरों पर करीब 75 मशीनें ले ली हैं जिनके जरिए वह घर पर रहकर कार्य करते हैं। यह मशीन करीब 14 हजार रुपये में एक मिलती है। गोटीटोरिया का जो वनक्षेत्र है उससे लगे छिंदवाड़ा और होशंगाबाद के भी कुछ वनग्राम हैं जहां के ग्रामीण हमारे केंद्र पर घास-रस्सी लाते हैं।

इस तरह से यह केंद्र तीन जिलों के आदिवासी परिवारों को रोजगार दे रहा है। घास रखने दो गोदाम हैं और दो केंद्रों पर मशीनें रखी हैं। प्रदेश के इन जिलों तक सप्लाईः सावई अर्थात बावेर घास से बनी रस्सी काफी मजबूत मानी जाती है जो बांस बांधने के कार्य में सबसे उपयुक्त मानी जाती है।

जिससे वन विभाग के जरिए यह रस्सी प्रदेश के 8 जिलों बैतूल, होशंगाबाद, खंडवा, बालाघाट, सिवनी, रीवा, छिंदवाड़ा, हरदा तक पहुंचती है। वन विभाग के अनुसार हर वर्ष करीब एक हजार क्विंटल रस्सी की सप्लाई की जाती है।

वनग्रामों के आदिवासी रस्सी निर्माण कार्य से जुड़कर आत्मनिर्भर हो रहे हैं। उन्हें अच्छी आय हो और पलायन की स्थिति न बने इसके लिए ही केंद्र बना था। हमारे यहां बनी रस्सी मप्र के 8 जिलों तक जाती है। इस केंद्र से प्रदेश में जिले की एक अलग पहचान है। पहले 15 रुपये प्रति किलो से रस्सी ली जाती थी।

लेकिन अब दाम बढ़कर 22 रुपये प्रति किलो हो गए हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि ग्रामीण जो घास लाते है हम उसका भी पैसा देते है और फिर उसी घास से वह जो रस्सी बनाते है हम उसे भी खरीदते है। पहले 41 मशीनें केंद्र में ही थी लेकिन अब ग्रामीणों ने भी मशीनें ले ली यह बड़ी बात है।

महेंद्र कुमार जी की कलम से