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“अंग्रेजों के लिए दहशत का पर्याय थे – दुर्दम्य योद्धा बाघा जतिन”

“आमरा मोरबो,जगत जागबे” (जब हम मरेंगे, तभी देश जागेगा) – “बाघा जतिन” आईये भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सबसे अद्भुत एवं अद्वितीय महा महारथी श्रीयुत “बाघा जतिन” (जतीन्द्रनाथ मुखर्जी /यतींद्रनाथ मुखर्जी) को जानते हैं। कहां से प्रारंभ करुं? क्योंकि इतिहास के पन्नों से तो पाश्चात्य इतिहासकारों, एक दल विशेष के समर्थक परजीवी इतिहासकारों, पथभ्रष्ट और तेल लगे खूंटे पर दोनों पैर रखकर शौच करने वाले वामपंथी इतिहासकारों ने, महा महारथी के अवदान को लगभग गायब ही कर दिया है ! “जबकि 1911 में अंग्रेजों ने प्रमुख रुप से बाघा जतिन के कारण ही कलकत्ता से दिल्ली राजधानी स्थानांतरित की थी”। बाघा जतिन की “हिन्दू – जर्मन योजना” सफल हो जाती तो देश सन् 1915 में ही स्वतंत्र हो गया होता।

बाघा जतिन जतींद्र नाथ मुखर्जी का जन्म जैसोर जिले में सन् 1879 में हुआ था। पाँच वर्ष की अल्पायु में ही उनके पिता का देहावसान हो गया। माँ ने बड़ी कठिनाई से उनका लालन-पालन किया। 18 वर्ष की आयु में उन्होंने मैट्रिक पास कर ली और परिवार के जीविकोपार्जन हेतु स्टेनोग्राफी सीखकर कलकत्ता विश्वविद्यालय से जुड़ गए। वे बचपन से ही बड़े बलिष्ठ थे। सत्यकथा है कि 27 वर्ष की आयु में एक बार जंगल से गुजरते हुए उनकी मुठभेड़ एक बाघ से हो गयी। उन्होंने बाघ को अपने हंसिये से मार गिराया था। इस घटना के बाद यतीन्द्रनाथ “बाघा जतीन” नाम से विख्यात हो गए थे।

“भारतीय इतिहास में अंग्रेजों की हाथों और पैरों से जितनी धुनाई बाघा जतिन ने की है उतनी किसी ने नहीं की है।” उन्हीं दिनों अंग्रेजों ने बंग-भंग की योजना बनायी। बंगालियों ने इसका विरोध खुल कर किया। यतींद्र नाथ मुखर्जी का नया खून उबलने लगा। उन्होंने साम्राज्यशाही की नौकरी को लात मार कर आन्दोलन की राह पकड़ी।

सन् 1910 में एक क्रांतिकारी संगठन में काम करते वक्त यतींद्र नाथ ‘हावड़ा षडयंत्र केस’ में गिरफ्तार कर लिए गए और उन्हें साल भर की जेल काटनी पड़ी। जेल से मुक्त होने पर वह ‘अनुशीलन समिति’ के सक्रिय सदस्य बन गए और ‘युगान्तर’ का कार्य संभालने लगे। उन्होंने अपने एक लेख में उन्हीं दिनों लिखा था-‘ पूंजीवाद समाप्त कर श्रेणीहीन समाज की स्थापना क्रांतिकारियों का लक्ष्य है। देसी-विदेशी शोषण से मुक्त कराना और आत्मनिर्णय द्वारा जीवन यापन का अवसर देना हमारी मांग है।’

क्रांतिकारियों के पास आन्दोलन के लिए धन जुटाने का प्रमुख साधन धन हस्तगत करते हेतु अनुष्ठान था जिन्हें प्रकारांतर से पूर्ववर्ती इतिहासकारों ने पूर्वाग्रह से डकैती कहा है। दुलरिया नामक स्थान पर धन हस्तगत करने हेतु भीषण आक्रमण के दौरान अपने ही दल के एक सहयोगी की गोली से क्रांतिकारी अमृत सरकार घायल हो गए। विकट समस्या यह खड़ी हो गयी कि धन लेकर भागें या साथी के प्राणों की रक्षा करें! अमृत सरकार ने जतींद्र नाथ से कहा कि धन लेकर भागो। जतींद्र नाथ इसके लिए तैयार न हुए तो अमृत सरकार ने आदेश दिया- ‘मेरा सिर काट कर ले जाओ ताकि अंग्रेज पहचान न सकें।’ इन अनुष्ठानों में ‘गार्डन रीच’ का अनुष्ठान बड़ा मशहूर माना जाता है। इसके नेता जतींद्र नाथ मुखर्जी थे। विश्व युद्ध प्रारंभ हो चुका था। कलकत्ता में उन दिनों राडा कम्पनी बंदूक-कारतूस का व्यापार करती थी। इस कम्पनी की एक गाडी रास्ते से गायब कर दी गयी थी जिसमें क्रांतिकारियों को 52 माऊजर पिस्तौलें और 50 हजार गोलियाँ प्राप्त हुई थीं। ब्रिटिश सरकार हो ज्ञात हो चुका था कि ‘बलिया घाट’ तथा ‘गार्डन रीच’ के धन हस्तगत करने हेतु अनुष्ठानों में जतींद्र नाथ का हाथ था।

Bagha Jatin - Wikipedia

9 सितंबर 1915 को पुलिस ने जतींद्र नाथ का गुप्त अड्डा ‘काली पोक्ष’ (कप्तिपोद) ढूंढ़ निकाला। जतींद्र बाबू साथियों के साथ वह जगह छोड़ने ही वाले थे कि राज महन्ती नमक अफसर ने गाँव के लोगों की मदद से उन्हें पकड़ने की कोशश की। बढ़ती भीड़ को तितरबितर करने के लिए जतींद्र नाथ ने गोली चला दी। राज महन्ती वहीं ढेर हो गया। यह समाचार बालासोर के जिला मजिस्ट्रेट किल्वी तक पहुंचा दिया गया। किल्वी दल बल सहित वहाँ आ पहुंचा। यतीश नामक एक क्रांतिकारी बीमार था। जतींद्र उसे अकेला छोड़कर जाने को तैयार नहीं थे। चित्तप्रिय नामक क्रांतिकारी उनके साथ था। दोनों तरफ़ से गोलियाँ चली। चित्तप्रिय वहीं शहीद हो गया। वीरेन्द्र तथा मनोरंजन नामक अन्य क्रांतिकारी मोर्चा संभाले हुए थे। इसी बीच यतींद्र नाथ का शरीर गोलियों से छलनी हो चुका था। वह जमीन पर गिर कर ‘पानी-पानी’ चिल्ला रहे थे। मनोरंजन उन्हें उठा कर नदी की और ले जाने लगा। तभी अंग्रेज अफसर किल्वी ने गोलीबारी बंद करने का आदेश दे दिया। गिरफ्तारी देते वक्त जतींद्र नाथ ने किल्वी से कहा- ‘गोली मैं और चित्तप्रिय ही चला रहे थे। बाकी के तीनों साथी बिल्कुल निर्दोष हैं। 10 सितंबर 1915 में भारत के स्वाधीनता संग्राम के इस महान् सेनानी ने अस्पताल में सदा के लिए आँखें मूँद लीं। बाघा जतिन के लिए ये पंक्तियाँ कितनी सार्थक हैं कि-
“सूख न जाए कहीं पौधा ये आज़ादी का,
खून से अपने इसे इसलिए तर करते हैं,
दर-ओ-दीवार पर हसरत से नज़र करते हैं,
खुश रहो अहल-ए-वतन, हम तो सफ़र करते हैं।”
आज बाघा जतिन
की
जयंती पर शत् शत् नमन है
 डॉ. आनंद सिंह राणा
श्रीजानकीरमण महाविद्यालय एवं
इतिहास संकलन समिति