अफगान की फौजिया रऊफ को कभी सुना है?
अफगानिस्तान मूल की पख्तून हैं डॉ. फौजिया रऊफ। आतंकी उथल-पुथल के पिछले दौर में वे अपने परिवार के साथ बेदखल होकर पाकिस्तान आईं थीं और लाहौर के अल्लामा इकबाल मेडिकल कॉलेज से डॉक्टरी की पढ़ाई की। वे इन दिनों अमेरिका में रहती हैं। मैं कुछ महीनों से लगातार उन्हें सुन रहा हूं।
तालिबान के भ्रूण काे अपने गर्भ में पालते हुए पाकिस्तान को उन्होंने बेहद करीब से देखा और समझा है। वह भ्रूण अब बीस साल का नौजवान है, जिसने अफगानिस्तान की बरबादी की सबसे नई इबारत लिखी। वे जिहाद के लिए निकले इस्लामी मुजाहिदीनों के सबसे नए चेहरे हैं, जो जिंदा रहते हुए गाजी कहलाएंगे और मारे गए तो शहीद। शहादत की स्थिति में रौनकदार जन्नत का खाका उनके दिमागों में बचपन से खोदा गया है।
पाकिस्तान के जाने-माने हाईप्रोफाइल मौलाना तारेक जमील अपनी एडल्ट तकरीरों में जन्नत की हूरों पर जब बोलते हैं तो सामने बैठे मुरीद जन्नतनशीं होने के लिए कसमसाने लगते हैं। वे बहुत तफसील से ठहर-ठहरकर बताते हैं कि 72 हूरों का जिस्म कैसा होगा और कैसे झीने लिबास में वे हाथों में मदिरा के प्याले लेकर आपको रिझाएंगी। उनकी कद-काठी और जिस्म का रंग कैसा होगा। इतनी हसीनाओं को नॉन स्टॉप भोगने के लिए कितने मर्दों की ताकत अल्लाह अता फरमाएगा।
हाथों में तस्बीह फेरते हुए मौलाना तारेक जमील ऐसी लजीज जन्नत का नक्शा अपने मुरीदों के ख्यालों में खोदने में माहिर हैं। उनके श्रोताओं में हाफिज, मौलाना और मदरसों के तालिबे-इल्म हजारों नौजवान हैं, जो मदरसों में लौटने के बाद अपने जेहन में हूरों का ख्वाब समेटकर ही हर दिन सोते-जागते हैं।
जिहाद ऐसी जन्नत तक जाने का टोल फ्री एक्सप्रेस हाईवे है। वे जो कुछ पढ़ते हैं वह भारत के देवबंद में तैयार तालीम का एक ऐसा दिमागबंद पैकेज है, जो उस ख्वाब को कब्रों में जाने तक खाद-पानी दे रहा है। केरल के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान देवबंद के घातक पाठ्यक्रमों की तरफ सबका ध्यान खींचते रहे हैं।
आधुनिक संचार तकनीक ने यह सुविधा दी है कि तारेक जमील की लाजवाब तकरीरों में हूरों के दीदार आप घर बैठे सुन लें, तबलीगियों के तौर-तरीकों को ठीक से समझ और देख लें, तालिबानों की हर करतूत को अपने मोबाइल फोन पर उघाड़ लें और मदरसों की दुनिया के दिव्य दर्शन भी कर लें।
मजहबी प्रचार की यह लहर गैर मुस्लिम अपनी नजर से देख रहे हैं तो मुसलमानों की नई पीढ़ी अपनी नजर से देख रही है। बेशक इस वर्ग में बड़ी तादाद ऐसे मुसलमानों की होगी, जो तालिबानों के उभार में आलमे-इस्लाम का सिक्का चमकता हुआ देखते होंगे।
भारत में नोमानी और बर्क जैसे प्रज्ञावान महापुरुष तालिबानों के लिए यूं ही दुआएं नहीं कर रहे। उनकी दुआओं और इस्तकबाल का मतलब है कि वे उस दर्शन के हामी हैं, जो 12-15 साल की बेटियों को सेक्स स्लेव बनाने के लिए काबुल के घर-घर में दस्तक दे रहा है। अगर नोमानी अौर बर्क काबुल में होते तो तालिबानों के सामने अपनी बुरकापोश बेटियों को खुश होकर पेश करते। दीन की खिदमत में जो जरूरी है, वह वाजिब है!
दूसरी तरफ लगातार बढ़ती तादाद ऐसे मुसलमानों की भी है, जो ठिठककर खड़े अजानों और नमाजों पर पहली बार गौर कर हैं। वे कुरान को अर्थ सहित पढ़ रहे हैं। वे उन हदीसों को खंगाल रहे हैं, जिनकी बुनियाद 14 सौ साल में पहली बार सऊदी क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान ने ही हिला दी है। वे आसपास के आलिमों से सवाल कर रहे हैं।
नई सोच के इन जहीन मुस्लिम लड़के-लड़कियों की स्वतंत्र चेतना भविष्य के बारे में क्रांतिकारी निर्णय ले रही है। डॉ. फौजिया रऊफ इस्लामिक परिवेश में पैदा हुई इसी पीढ़ी का एक चर्चित प्रतिनिधि चेहरा हैं। यह पीढ़ी यह तौल रही है कि अगर अपने दावे के अनुरूप इस्लाम ही दुनिया का अंतिम सत्य है तो इस अंतिम सत्य के हाथों में दुनिया कैसी बन रही है? इस्लाम दुनिया को कैसी शक्ल देना चाहता है? इस्लामी दर्शन में औरतों-बच्चों का क्या भविष्य है? इस्लामी हुकूमत में गैर मुसलमानों के इंसानी हक-हुकूक कितने महफूज हैं? जिहाद क्या है? हर वक्त जिहादी मारकाट की क्या दलील है? और चौदह सौ साल पुराने दावों के सबूत क्या हैं? आंख बंद करके यकीन करने के लिए यह पीढ़ी कतई राजी नहीं है।
संचार तकनीक ने उन 54 मुल्कों की दशा और दिशा भी ठीक से दिखा दी है, जो इस्लामी रंग में रंगे हैं। अब सीरिया, यमन और इराक की हालत देखने के लिए किसी सरकारी फेलोशिप पर वहां तशरीफ ले जाने की जरूरत नहीं है। हर कोने की हर पल की अपडेट मोबाइल पर है। काबुल की चीख-पुकार तो एक ताजा शोर भर है। इंटरनेट पर सवालों की झड़ी लगी है। आतंक के बूते पर दुनिया को अपने काबू में लेने और अपना दर्शन न मानने वालों के कत्ल को वाजिब ठहराने की जिद उन्हें बिल्कुल रास नहीं आ रही।
पढ़ी-लिखी डॉ. फौजिया रऊफ ने अफगानिस्तान से लेकर पाकिस्तान तक अपने आसपास जो कुछ देखा और भोगा, उसके बाद उस दुनिया में देखने के लिए कुछ बचा नहीं था। वे निजी तौर पर सक्षम थीं कि कोई निर्णय लें। उन्हाेंने हिम्मत के साथ निर्णय लिया और दुनिया के सामने घोषित कर दिया कि वे अब फौजिया रऊफ नहीं हैं। अब वे सरस्वती दासी हैं। अखंड भारत की चेतना उनके भीतर जागी है। वे अपनी जड़ों को महाभारत में महसूस करती हैं। वे कहती हैं कि अतीत में सबकी आवाजें कैद हैं। आप उन्हें सुन सकते हैं।
आरिफ अजाकिया के साथ एक लंबी चर्चा में उन्होंने बड़ी साफगोई से यह स्वीकार किया है कि अरब मूल में पैदा हुए इस्लाम की अपनी सीमाएं और सख्त दायरे हैं, जिसमें घुटन है और थोपी गई दलीलें हैं। बेहतर है कि अपने बौद्धिक विकास के लिए अपने विकल्प और दायरे तय किए जाएं। इस मोड़ पर उन्हें हिंदू दर्शन ने लुभाया। उन्हाेंने गीता और रामायण में ताकझांक की। वे अफगानिस्तान में इस्लाम की आमद के सदियों पहले के कनिष्क के इतिहास में गईं। उन्हें नृत्यरत शिव के रूप ने आकर्षित किया। सनातन संस्कृति के एक ऐसे देवता, जो देेवों के देव हैं और नृत्य में जितने कुशल है, योग में उतने ही निष्णात हैं। वे आदि योगी कहे जाते हैं। सनातन धर्म के विशाल छाते के नीचे पनपती रहीं तमाम वैचारिक, स्वतंत्र और सुरक्षित दर्शन परंपरा ने फौजिया को दीवाना बना दिया। एक ऐसी दुनिया जहां देवताओं के साथ देवियों का भी ऊंचा स्थान है। खासकर सरस्वती, जो संगीत और ज्ञान की देवी हैं। फौजिया के शब्द हैं-“मुझे लगा जैसे गुरुत्व की शक्ति के पार कोई मुझे आसमान में खींच रहा हो। सरस्वती की कल्पना कितनी अनूठी है।’ और फौजिया ने अपना नया नामकरण सरस्वती दासी किया।
सरस्वती दासी कहती हैं कि पाकिस्तान को सोचना चाहिए कि 40 साल तक अमेरिका से डॉलर उलीचकर उसकी कौम क्यों गुरबत के चौराहे पर ही खड़ी है? गजवा-ए-हिंद का खूनखराबे से भरा मकसद किसके लिए है, आखिर हम उसी हिंद का ही हिस्सा हैं। बलूचिस्तान के दमन की दलील क्या है? फौजिया से सरस्वती बनी इस साहसी महिला का सपना है कि कभी भारत, पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश अलग देश होकर भी एक यूनियन की तरह सामने आएं और अपनी सांस्कृतिक विरासत को दुनिया के सामने पेश करें। बामियान अफगानिस्तान में उसी अखंड भारत के प्रमाण है, जैसे पाकिस्तान में तक्षशिला और कटासराज। तुर्की जैसा देश दुनिया भर के पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र बना है तो हमारे पास हजारों साल की बेमिसाल दर्शन परंपरा और स्थापत्य की बेजोड़ विरासत है, जो हम अपने ही हाथों बरबाद करने में लगे हैं।
चार दिन पहले तालिबान के इस्लामी शासन की कल्पना से थरथर कांपते हजारों भुक्तभोगी अफगान औरतें-बच्चे जब काबुल एयरपोर्ट पर कहीं भी निकल भागने की गुहार लगा रहे थे ठीक उसी समय गुजरात के सोमनाथ में आस्था का एक नया अध्याय जुड़ रहा था। गुजरात और गजनी का यादगार रिश्ता पूरे एक हजार साल पुराना है, जब इस्लाम के एक दुर्दांत आतंकी महमूद गजनवी ने पहली बार सोमनाथ में आज के तालिबान जैसा खूनी कोहराम और कत्लेआम मचाया था। उसके पास भी काफिरों के खिलाफ जिहाद और शरिया की हुकूमत की वही सड़ी-गली और घिसी-पिटी दलीलें थीं।