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एक प्रखर प्रकाशक “विद्यार्थी” एवं प्रकाशन “प्रताप”

9 नवंबर 1913 को उत्तर प्रदेश के कानपुर से प्रताप नामक ऐतिहासिक साप्ताहिक समाचार पत्र की नींव रखी गई । यह समाचार पत्र एक निडर, निष्पक्ष पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी के संपादन में संपादित हुआ। “प्रताप” यह नामकरण गणेश शंकर विद्यार्थी ने महाराणा प्रताप के जीवन से प्रभावित होकर रखा था। जिस प्रकार महाराणा प्रताप ने अपने शत्रुओं को परास्त करने के लिए समाज के छोटे-बड़े सभी राष्ट्रभक्तों को अपने साथ लिया इसी प्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी जी ने भी स्वाधीनता की अखंड अलख जगाने समाज के सभी छोटे बड़े राष्ट्रीय विचारकों के विचारों को संजोकर प्रकाशित करने के लिए प्रताप साप्ताहिक को आधार बनाया।

शिव नारायण मिश्र, नारायण प्रसाद अरोड़ा और यशोदा नंदन इन तीन साथियों के साथ मिलकर गणेश शंकर विद्यार्थी जी ने समाचार पत्र के रूप में अंग्रेजी सरकार का विरोध करने का मोर्चा संभाला। प्रताप का प्रभाव इतना प्रभावशाली था कि उस समय प्रताप की 9 हजार से 15 हजार के लगभग प्रतियाँ प्रकाशित होती थी। गणेश शंकर ने प्रताप के माध्यम से एक ओर समाज को स्वतंत्रता के लिए जागृत किया वहीं दूसरी ओर स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के लिए प्रताप को शरणस्थली बनाया। देश की स्वतंत्रता के लिए युवाओं के हृदय में जो उबाल उठ रहा था उसे उनकी लेखनी से संकलित कर प्रकाशित करने का कार्य प्रताप ने किया और विद्यार्थी जी ने उन पत्रकारों को पत्रकारिता के क्षेत्र में उचित मार्गदर्शन प्रदान किया।

अब तो प्रताप आम जनों और क्रांतिकारियों का अपना प्रकाशन बन गया था। विद्यार्थी एक पत्रकार थे और प्रताप उनके विचारों का वाहक। जो प्रताप विद्यार्थी की वैचारिक शक्ति था वह हिंदी जगत की श्रद्धा का केंद्र बना । प्रताप के प्रकाशन के समय विद्यार्थी जी उन्हीं विज्ञापनों को प्रताप में प्रकाशित करते थे जिनका समाज की नैतिकता पर सकारात्मक प्रभाव पड़ रहा हो।

‘प्रताप’ के मंच से गणेश शंकर जी ने कायरों को, राष्ट्रद्रोहियों को, आतताइयों को, महलों को, मुकुटों को, स्वार्थियों को, सामंतों को कई चुनौतियाँ दी। यही कारण था कि “विद्यार्थी और प्रताप” दोनों ही देशद्रोहियों, जमींदारों, सामंतों और अंग्रेजी शासकों की आँखों में खटकने लगे। इस कारण उन्हें कई बार कारागार मिला, अर्थहानि हुई और अपमान भी सहन करना पड़ा।

“प्रताप” के माध्यम से ही गणेश शंकर विद्यार्थी ने क्रांतिकारियों को विविध रूप से सहायता प्रदान की। सरफरोशी की तमन्ना रखने वाले भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, रोशन सिंह ठाकुर, रामकृष्ण खत्री, अशफ़ाक उल्ला खाँ आदि का कोई ठोस नियमित आर्थिक आधार नहीं था। भारत माता की स्वाधीनता के पुनीत संकल्प को साकार करने गणेश शंकर जी ने इन सभी की आजीविका के साधन एकत्रित कर उन्हें आर्थिक सहयोग प्रदान किया। आपने भगत सिंह को अलीगढ जिले के एक विद्यालय में प्रधान आचार्य (हेडमास्टर) बनवाया, वही अशफ़ाक उल्ला खां को अपने ही कार्यालय में रख लिया। आप गुप्त रूप से चंद्रशेखर आजाद के स्वाभिमान को बनाए रखते हुए उनके चचेरे भाई मनोहर तिवारी द्वारा उनके माता-पिता को जीवन की आधारभूत आवश्यकताओं की पूर्ती आर्थिक सहयोग प्रदान करके करते रहे।

संकट के समय “विद्यार्थी” अपने ‘प्रताप’ के साथ सदैव आगे रहते। फाँसी लगने के ठीक एक दिन पूर्व “विद्यार्थी” जी को अशफ़ाक उल्ला खां का तार मिला जिसमें लिखा था -19 तारीख़ को लखनऊ स्टेशन पर मिलिए। यही वह दिन था, जब अशफ़ाक उल्ला खां को सुबह-सुबह फाँसी होने वाली थी। विद्यार्थी थी सोच में पड़ गए – फिर भला स्टेशन क्यों बुलाया है? लखनऊ स्टेशन पर जब अशफ़ाक खां की मृत देह को लाया गया तो उनके साथ एक पत्र भी था जिससे सारी बातें स्पष्ट हो गई। अशफ़ाक खां ने अपने पत्र में विद्यार्थी जी से निवेदन किया था कि “मेरे भाई रियास तुल्ला खाँ बहुत गरीब है वह मेरा पुख़्ता मकबरा न बनवा पाए ।आपसे गुज़ारिश है, कि आप मेरा पुख़्ता मकबरा बनवा दे।” विद्यार्थी जी ने उनकी अंतिम इच्छा पूर्ण की और शाहजहाँपुर में उनका एक पुख़्ता मक़बरा बनवा दिया। इसका प्रबंध भी प्रताप से प्राप्त आय के माध्यम से किया गया।

ऐसे सरल ,सहज, आदर्शपुंज , पर दुख कातर, हिंदू मुस्लिम एकता के प्रबल समर्थक गणेश शंकर विद्यार्थी हिंदू मुस्लिम झगड़े के समय हिंदुओं और मुसलमान की सुरक्षा करते हुए मृत्यु को प्राप्त हो गए। कानपुर के चौबे गोला क्षेत्र के पास की एक मुस्लिम बस्ती में मुस्लिम उन्मादियों ने उनपर भीषण प्रहार किये। बस उनका यही दोष था कि उन्होंने हिंदू मुस्लिम को भाई-भाई माना और 150 मुसलमान स्त्री पुरुष और बच्चों को कानपुर के बंगाली मोहाल क्षेत्र से निकालकर सुरक्षित चौबे गोला तक पहुँचाया था।

गणेश शंकर विद्यार्थी का मानना था कि- “मैने अपने जीवन में किसी का कुछ नहीं बिगड़ा, कोई मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकता ।” इस विश्वास के आधार पर उन्होंने सदैव मानवता की सेवा की और 40 वर्ष 7 माह की अल्पायु में यह चिरस्मरणीय जननायक अपना बलिदान देकर चिरनिंद्र में सो गया।

“प्रताप” के प्रथम अंक के प्रकाशन के साथ जब तक प्रताप प्रकाशित होता रहा उसमें सदेव यह पंक्तियाँ छपती रही –

जिसको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है ।
वह नर नहीं, नर पशु निरा है और मृतक समान है।।

इन्हीं पंक्तियों को साकार करते हुए “प्रताप” के मुखर स्वर गणेश शंकर विद्यार्थी मृत्यु के पश्चात भी अमर हो गए । सचमुच गणेश शंकर विद्यार्थी की अहिंसा…. शाब्दिक या प्रदर्शन करने की अहिंसा नहीं थी, सच्ची अहिंसा थी। निस्वार्थ, भीड़ में अकेले रहकर अहिंसा के माध्यम से मानवता की सच्ची पूजा करने वाले महामानव गणेश शंकर विद्यार्थी के बलिदान के पश्चात् महात्मा गाँधी भी उनसे ईष्र्या करने लगे। गाँधी ने कहा था कि “उनकी मृत्यु एक ऐसे महान उद्देश्य के लिए हुई है, कि मुझे ऐसी मृत्यु से ईर्ष्या हो रही है। काश मुझे भी वैसी मौत नसीब हो…..”

शांति के समय में बेचैन और क्रांति के बीचों-बीच अत्यंत शांत रहने वाले महान पुरुष गणेश शंकर विद्यार्थी राष्ट्र के प्रखर पुंज है। आपकी उत्कृष्ट जीवन यात्रा पर मेरा बस यही शब्दिक समर्थ है –

हम गुज़रते हैं तो गुज़रते रहे, वतन हमारा आबाद रहे ।
हो गिरफ़्तार तो हो जाए वतन हमारा आज़ाद रहे।।

डॉ नुपूर निखिल देशकर
सहा प्राध्यापक वाणिज्य