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विस्वव्यापि राम / 13

।। ॐ।।

अरब देश का भृगु के पुत्र शुक्राचार्य तथा उनके ही पौत्र ‘और्व’ से ऐतिहासिक संबंध प्रमाणित है, यहां तक की “हिस्ट्री ऑफ पर्शिया” के लेखक ‘साइकस’ का मत है कि ‘अरब’ नाम ‘और्व’ के ही नाम पर पड़ा, जो विकृत होकर ‘अरब’ अभीहित किया गया। भृगु को पुराण ब्रह्म का मानस पुत्र बताते हैं। भृगु की एक पत्नी हिरणकशिपु की पुत्री दिव्या ,दूसरी पत्नी पौलोमी थीं । दिव्या दैत्य वंशजा थी तो पौलोमी थी दानव वंश के पुलोम दानव की पुत्री । ये दैत्य- दानव और आदित्य (देवता) सभी परस्पर भाई-बंधु ही थे। अंग्रेजी में लिखे- “पर्शिया के प्राचीन इतिहास” में ‘भ्रगु’ को ‘Brygy’ लिखा गया है। यह वंशावली ‘वायुपुराण’ 65 /90 /91 /72/ 94/60/ 26 में प्राप्त है। उधर एशिया माइनर के अत्युच्य ‘टेबुललैंड’ को Brygy कहा जाता है। कई इतिहासकार इसी को ‘भृगु’ का स्थान मानते हैं।

दक्ष की पुत्री थीं दिति-दनु और अदिति,इन्हीं में से दिति से दैत्य, दनु से दानव और अदिति से आदित्य आर्थत देवता उत्पन्न हुये । इनके पिता अर्थात इन तीनों स्त्रियों के पति थे कश्यप- जिनका गोत्र आज भी भारत के अनेक स्थानों पर प्राप्त है। भारत के उत्तर पश्चिम में इलावर्त था, जहां दैत्य और दानव बस्ते थे। इस इलावर्त में एशियाई रूस का दक्षिणी- पश्चिमी भाग, ईरान का पूर्वी भाग तथा गिलगित का निकटवर्ती क्षेत्र सम्मिलित था। देवलोक (आदित्यों) का आवास स्थान भारत के उत्तर-पूर्व में स्थित हिमालय क्षेत्र में रहा था। बेबीलोनिया के प्राचीन गुफाओं में पुरातात्विक खोज में जो भित्ति- चित्र हाथ लगे हैं उनमें विष्णु को हिरणकशिपु के भाई हिरण्याक्ष से युद्ध करते हुए उत्क्रीन या चित्रित किया गया है।

इन्हीं भ्रगु की पत्नी दिव्या शुक्र (उशना कवि) की माता थीं। पौलोमी विमाता थी। इंद्र ने अपनी पुत्री जयंती का विवाह शुक्र से किया। पुलोमा दैत्य की दूसरी पुत्री शची इंद्र को ब्याही थी। स्पष्ट है कि आदित्य (देवों), दैत्य और दानवों में परस्पर विवाह संबंध होते थे।

विद्वान श्री बचनेश त्रिपाठी लिखते हैं की –
“काबा ‘काव्य’ (उशना) का ही विकृत नाम

उस युग में अरब एक बड़ा व्यापारिक केंद्र रहा था। इसी कारण देवों- दानवो में इलावर्त के विभाजन को लेकर 12 युद्ध “देवासुर संग्राम” हुए। इंद्र (देवराज) ने अपनी पुत्री शुक्र से इसी विचार से ब्याही थी कि शुक्र उनके देवों के पक्षधर बन जाए किन्तु शुक्र दैत्यों की ही गुरु बने रहे। यहां तक कि जब दैत्यराज बली ने शुक्राचार्य का कहना न माना तो वे उसे त्याग कर अपने पुत्र ‘और्व’ के पास अरब में आ गए और वहा 10 वर्ष रहे। साइक्स ने अपने इतिहास ग्रंथ “हिस्ट्री ऑफ पर्शिया” में लिखा है कि- “शुक्राचार्य लिव्ड़ टेन इयर्स इन अरब”। अरब में शुक्राचार्य का इतना मान-सम्मान हुआ कि आज जिसे वहां ‘काबा’ कहते हैं वह वस्तुतः ‘काव्य शुक्र’ (शुक्राचार्य) का ही मंदिर है। ‘काव्य’ नाम (शब्द) विकृत होकर ‘काबा ‘ अभिहित हुआ। अरबी भाषा में ‘शुक्र’ का अर्थ ‘बड़ा’ अर्थात ‘जुम्मा’ इसी कारण किया गया और इसी से जुम्मा (शुक्रवार) को मुसलमान पवित्र दिन मानते हैं।

बृहस्पति देवानां पुरोहित आसित् उशना कव्योस्सुराणाम्ं ।
(जैमिनीय ब्राह्मण, 01-125)

अर्थात- “बृहस्पति देवों के पुरोहित थे और उशना काव्य (शुक्राचार्य) असुरों के।” किंतु शुक्राचार्य के अरब चले जाने से बृहस्पति ही दैत्यों के भी गुरु बन गए। परंतु बलि को देवों ने परास्त कर उसका राज्य ले लिया और कैद करके नागलोक भेज दिया।

जब मक्के पर मोहम्मद ने हमला किया

इस्लाम के प्रवर्तक मोहम्मद ने जब मक्का (महाकाय शिवलिंग) पर आक्रमण किया – उस समय वहां बृहस्पति, मंगल, अश्विनी कुमार, गरूड, नरसिंह की मूर्तियां प्रतिष्ठित थी- साथ ही एक मूर्ति वहां राजा बलि की भी थी, और दानी होने की प्रसिद्धि से उसका एक हाथ सोने का बना था। ‘Holul’ के नाम से अभिजीत यह मूर्ति वहां इब्राहिम और इस्माइल की मूर्तियों के बराबर रखी थी। जिसके विषय में कहा जाता है कि यह पहले सीरिया (Syria) के Belka के स्थान में प्रतिस्थिट थी।
(मुह्हमद एण्ड दि ब्लेक स्टोन – H.P. Voll. ।।)

वेदमूर्ति पं. सातवलेकर ने भी लिखा है कि- “अरब के काबा में अति विशाल काले पत्थर ( संगे अस्वद )का शिवलिंग प्रतिष्ठित रहने से ही उसका नाम ‘मक्का’ अर्थात प्राचीन पूर्व नाम ‘महाकाय’ विख्यात हुआ और मोहम्मद ने जब उसे तोड़ा, तो उसके अनेक खंड तो वहां बने कुएं में फेंक दिए, किंतु उसी ध्वस्त किए गए शिवलिंग का एक टुकड़ा आज भी काबा में एक जलहरी (आले) में सम्मानपूर्वक न केवल प्रतिष्ठित है; वरन हज करने जाने वाले भारतीय मुसलमान उस काले (अश्वेत) प्रस्तर- खंड अर्थात ‘संगे अस्वद’ का आदर -मान देते हुए चूमते हैं। 50-60 वर्ष पूर्व यह किवदंती चर्चित रही थी कि यदि कोई हिंदू अपने साथ थोड़ा गंगाजल ले जाकर काबे के उसे कुएं में डाल दे तो वह स्थान पुन: शिव-मंदिर का रूप धारण कर लेगा।

“अल्ला मस्जिद” (काबा मस्जिद) में भी ‘संगे अस्वद’ की कहानी

आंध्रप्रदेश के हैदराबाद नगर में जहां चारमीनार के पास में एक बड़ी मस्जिद है, जिसका गुंबद बहुत विशाल है। उसके चौड़े गुंबद में काले पत्थर का एक बड़ा और चौकोर खंड जोड़ा हुआ है। वहां के एक मुस्लिम पत्रकार फारुख मियां के अनुसार- “यह ‘संगे अस्वद’ का एक हिस्सा यहां ‘काबा शरीफ’ से लाकर लगाया गया है और मुसलमान इस ‘संगे अस्वद’ को बहुत पाक मानकर इसे अजहद (असीम) इज्जत देते हैं, बल्कि इसी वजह से इस मस्जिद का नाम ही “काबा मस्जिद” व “अल्ला मस्जिद” है। अरबी का ‘अस्वद’ शब्द भी संस्कृत -हिंदी का ‘अश्वेत’ शब्द ही है।

शुक्राचार्य को अरब में सम्मानार्थ ‘जुम्मा’ – ‘आरुबा’ कहा गया ,क्योंकि शुक्राचार्य ने अरब में प्रवास करते हुए महादेव की स्थापना की। अत्रि इन्हीं के पुत्र थे, जिनसे अरब में चंद्रवंश चला। चंद्रवंश के आदि पुरुष यही ‘अत्री’ थे। (ऋग्वेद- 1/1/4 /11//58/6 ) के अनुसार भृगु ने अग्नि की आराधना की थी। अत्रि का उल्लेख महाभारत के आदिपर्व ( 59/ 35/ 36) में है। मत्स्य पुराण अ.113/42, 43) में वर्णन है कि- “अत्रोस्थ भारद्वाज प्रस्थला: सदसेरका:। एते देशा उदिच्यास्तु। अत्रि को प्रजापति भी लिखा गया है। आत्रेय देश के स्वामी कह गये,जो आत्रिक नदी( Atrek ) तट पर अपवर्त में ‘अत्रीपत्तन (Atropatene) नाम से बसा था। यह भी उल्लेख मत्स्य पुराण (अ. 118/ स्लोक 61/76) में मिलता है। “हिस्ट्री ऑफ पर्शिया” के (Voll. ।. p. 319, 332 ) में वर्णन है कि- “अत्रिपत्तन या अज़रबैजान तथा आत्रिक नदी कश्यप सागर (कैस्पियन समुद्र) के किनारे थी।” कश्यप सागर -तटीय भूमि (क्षेत्र) ही आज ‘ओक्सस’ या ‘पारदिया’ कहलाती है। इसी क्षेत्र में प्रहलाद के पिता हिरणकशिपु को स्वर्ण की खान प्राप्त हुई थी जिससे उनके नाम में ‘हिरण्य’ (स्वर्ण) शब्द संयुक्त हो गया था। उस समय कश्यप सागर- तट से लेकर गजनी (गजबनी, हिरात, हरम, कूंज शहर, खुरासान, बुखारा, गजदमन, शंकारा, इक, शाकटारिया, वशपुर, वास्पोरस, कश) आदि देश आदित्यों (देवों), दैत्यो- दानवो, नागो, गरूडो के ही अधिकार में थे।

बेबीलोन पर मनु (सूर्य-पुत्र) के द्वितीय पुत्र ‘नृग’ का शासन था। वराह वंशज भी देवपुत्र कहे जाने लगे। बाद में यही देवपुत्र (वराह) ईरान के शासक हुए। वे वराह की प्रतिमा पूजते थे। बेबीलोनिया को जीतने वाले नृग- नृसिंह इक्षवाकु के अनुज थे। नृसिंह के सेना- संबंधी शिला -लेख व शिला- चित्र पुरातत्व विद्द ‘मॉर्गन मिशन’ को बेबीलोनिया तथा लुलबी में प्राप्त हुए (“हिस्ट्री ऑफ पर्शिया”, voll -1, 54- 55 ) ।

हिरणकशिपु का विष्णु ने सुमना पर्वत पर वध किया था। सूर्य अंकित ध्वज लिए नृसिन्ह को सैन्य संचालन करते हुए बगदाद तथा करमशाह के बीच वाले क्षेत्र में (लूलवी प्रदेश) चित्रित किया गया है भित्ति चित्रों में। नृर्सिंह या नृग के वंशज, जो कभी कश्यप सागर के उत्तरी तुर्किस्तान से लेकर फारस की खाड़ी व भारत तक बसे हुए थे, आज भी ईरान में दिखाई देते हैं। नरमसिन (Naramsin) इन्हीं के नायक या प्रमुख थे। हिरणकशिपु थे (खरो) दैत्यों के ईस्टखर (मूलपुरुष)। आज भी कश्यप सागर के समीप जो एक नगर ‘नरम-सिर’ नाम का मौजूद है, वह नृसिंह पुर का ही विकृत नाम है। मानचित्र में जिसे ‘हिंदूकुश’ कहते हैं- वह प्राचीन काल में ‘हेमकूट’ और आज के ‘कराकोरम’ पहाड़ को ही ‘कौंचगिरी’ कहते थे।

पर्शिया (फारस) के एक प्रांत में ‘शंकरा’ नाम से अभिहित एक कबीला आज भी बसता है। असीरिया के फ्रीर्जिया क्षेत्र में जिस देवता की पूजा प्रचलित है उसे ‘सेवा’ या ‘सेवक जी’ नाम से जानते हैं। यहां मिस्र देश में भी इस ‘सेवा’ देवता का संबंध सर्प (नाग) से जोड़ा गया है। इसी प्रकार अमेरिका का जो पेरू क्षेत्र है वहां जिस देवता को वहां के लोग पूजते हैं उसका नाम ‘शिबु’ है। क्या यह सब नाम ‘शिव’ के ही विकृत स्वरूप नहीं है? और क्या इससे यह नहीं प्रमाणित होता कि प्राचीनकाल में इन सब देशों में सर्वत्र हिंदू/सनातन धर्म का ही वर्चस्व रहा था। आखिर सनातन संस्कृति, राम की ही तो संस्कृति है। संपूर्ण विश्व में राम ही तो व्याप्त हैं अतः इस संस्कृति के अवशेष/साक्ष्य यत्र-तत्र, सर्वत्र प्राप्त हो रहे हैं, तब इसमें आश्चर्य क्या???..

क्रमशः …..

लेखक –
डॉ. नितिन सहारिया