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स्वातन्त्र्य वीर सावरकर : इतिहास की काल कोठरी में दमकता हुआ हीरा – १

– कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल

भारतीय राजनीति में स्वातन्त्र्य वीर विनायक दामोदर सावरकर का नाम सदैव चर्चा में रहता है। मात्र चौदह वर्ष की अल्पायु से अपना जीवन स्वतन्त्रता की बलिवेदी में आहुत कर देने वाले सावरकर। अपने भाई बाबाराव सावरकर सहित पूरे के पूरे परिवार क्रान्तिकारी कार्य में हवन करने वाले सावरकर। जिन्होंने राष्ट्र को जीवन के केन्द्र में रखने और राष्ट्र के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर करने का आजीवन व्रत लिया और सभी को इसकी प्रेरणा दी। उन सावरकर को भी कुटिल राजनीति अपनी सत्ता व स्वार्थ सिध्दि के लिए अपमानित करने का अवसर ढूँढ़ती रहती है, जिन्हें दो-दो आजन्म कारावास की सजा अँग्रेजों ने सुनाई हो। और जिनके लेखों, वक्तव्यों, पुस्तकों से अँग्रेज सरकार इतनी भयभीत रहती थी कि- उन्हें जब्त करने, बोलने, प्रकाशन रोकने और मुकदमा लगाकर जञ्जीरों में बाँध देती थी। वह सावरकर जिनकी क्रान्तिकारी व सामाजिक-राजनैतिक गतिविधियों का अँग्रेज सरकार ने नृशंसता पूर्वक दमन किया और उनके भाईयों – सहयोगियों को जेल में डाल दिया। घर के आर्थिक संसाधनों को नष्ट कर दिया हो और उनके जीवन के अठ्ठाईस वर्षों तक उन्हें कालापानी की कैद व सख्त निगरानी में रखकर महाराष्ट्र के रत्नागिरी की सीमाओं में कैद करके रखा। और उनके क्रान्तिकारी ,सामाजिक कार्यों पर अंकुश लगाने, यातना देने में जिन क्रूरताओं के साथ सावरकर व उनके परिवार को प्रताड़ित किया ; स्वातन्त्र्य भारत के इतिहास में ऐसा अन्य कोई उदाहरण देखने को नहीं मिलता है।

यह सावरकर के क्रान्तिकारी विचारों, कार्यों, दर्शन व भारतीय संस्कृति, हिन्दू राष्ट्र के प्रति उनकी अगाध, असंदिग्ध श्रध्दा का ही परिणाम है कि- वे जनमानस के ह्रदय में अपना अद्वितीय स्थान तो बनाए हुए हैं। और उत्तरोत्तर उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व का मस्तक उन्नत ही होता जा रहा है।

साथ ही उनका अनादर व अपमान करने वालों के लिए भी वे वर्षों से पत्थर में सर पीटने का विषय बने हुए है। हालाँकि इसके केन्द्र में स्वार्थ पिपासु राजनीति है जिसे पता है कि- सावरकर के दर्शन में कितना अपार ओज और तेज है। उन्हें यह भी पता है कि- वीर सावरकर के विचारों- सिध्दान्तों को लोक द्वारा आत्मसात करने पर भारत-भारतीयता और भारतीय संस्कृति की ध्वज पताका सदैव फहराती रहेगी। जिससे उसी सत्ता की प्रतिष्ठा होगी जो भारत की सनातन संस्कृति के प्रति निष्ठावान होगी।

इस कारण से सावरकर सदैव एक संगठित गिरोह के निशाने पर सदैव बने रहते हैं। हमें यह तथ्य भी ध्यान में रखना चाहिए कि- सावरकर उस समय से ही क्रान्तिकारियों के महान आदर्शों में स्थापित हो चुके थे‌। जब स्वतन्त्रता आन्दोलन के बहुचर्चित नेता- चाहे गाँधी जी हों, सुभाषचंद्र बोस हों, सरदार पटेल हों, नेहरू हों ; इन सभी का उभार नहीं हो पाया था।

महात्मा गाँधी तो दक्षिण अफ्रीका से सन् उन्नीस सौ पन्द्रह में भारत वापस आए थे। किन्तु सावरकर सन् उन्नीस सौ के प्रवेश के साथ ही क्रान्तिकारी कार्यों में अपने अपूर्व तेज के साथ गतिमान थे। बालगंगाधर तिलक उनसे इतना अधिक प्रभावित थे कि- श्यामजीकृष्ण वर्मा द्वारा लन्दन में भारतीय छात्रों के लिए हॉस्टल के रुप में स्थापित ‘इण्डिया हाउस’ जो वास्तव में भारतीय क्रान्तिकारी निर्माण की फैक्ट्री थी। वहाँ तिलक जी ने उन्हें पढ़ने के उद्देश्य से – क्रान्तिकारी गतिविधियों के प्रसार के लिए भेजा था।

सन् उन्नीस सौ चार में लन्दन में अपनी पढ़ाई के दौरान ही अभिनव भारत जैसे क्रांतिकारी संगठन को खड़ा करने वाले सावरकर। लाला हरदयाल, सेनापति बापट, भाई परमानंद और भगत सिंह के गुरू – मार्गदर्शक करतार सिंह सराभा के प्रेरणास्रोत सावरकर। लन्दन के विभिन्न पुस्तकालयों के पन्ने-पन्ने को पढ़कर तथ्यात्मक और प्रामाणिक तौर पर ‘सन् अठारह सौ सन्तावन का स्वातन्त्र्य समर’ लिखकर इतिहास के गौरव बोध को भरने वाले सावरकर।

‘सन् 1857 का स्वातन्त्र्य समर’ – यह कोई सामान्य पुस्तक भर नहीं थी, बल्कि इस पुस्तक ने अनेकानेक क्रान्तिकारियों को क्रान्ति की नई राह दिखलाई। गदर पार्टी के जन्म के पीछे यही पुस्तक है। अँग्रेजी सरकार इससे इतना भयभीत हुई कि प्रकाशन के पूर्व ही उन्हें जब्त करने की योजना बना ली थी। किन्तु सावरकर अँग्रेजों की मानसिकता व योजना को पूर्व में ही भाँपकर इसकी तीन प्रतियाँ तैयार की थीं। जो कि उन्होंने मूल रूप से मराठी भाषा में लिखी थी। और इसे उन्होने भारत में अपने बड़े भाई-  गणेश सावरकर, फ्रांस में भीकाजी कामा व एक प्रति डॉ. कुटिन्हों के पास भेजकर उसके व्यापक प्रकाशन व प्रसारण की रणनीति तैयार की थी।

इस पुस्तक की विचार दृष्टि – क्रान्तिकारी भावना की उपयोगिता इतनी अधिक थी कि- इसके विविध भाषाओं में अनेकानेक संस्करण प्रकाशित हुए। नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने इसके तमिल संस्करण को प्रकाशित करवाया, तो भगत सिंह ने इसके अन्य संस्करणों को राजाराम शास्त्री की सहायता से प्रकाशित करवाने व अधिकाधिक प्रसार में जुटे रहे। रासबिहारी बोस से लेकर राजर्षि पुरुषोत्तम दास दण्डन सहित अनेकानेक क्रान्तिकारियों के लिए गौरवपूर्ण इतिहास बोध से परिपूर्ण इस पुस्तक ने – क्रान्तिकारियों को आत्मबल व पुरुषार्थ के साथ त्याग और बलिदान का साहस प्रदान किया।

वे सावरकर ही थे जिन्होंने सन् उन्नीस सौ पाँच में सर्वप्रथम बंगाल विभाजन का विरोध करते हुए विदेशी वस्त्रों की होली जलाकर प्रखर प्रतिशोध दर्ज करवाया था। और इस विचार को आगे चलकर महात्मा गाँधी ने बाईस अगस्त सन् उन्नीस सौ इक्कीस को ‘स्वदेशी’ अभियान में विदेशी वस्त्रों की होली जलाकर अपनाया।

सन् उन्नीस सौ सात में – अँग्रेजों द्वारा जब भारत के अठारह सौ सन्तावन के स्वतन्त्रता संग्राम को कुचलने की लन्दन में झाँकी प्रस्तुत की गई। तो सावरकर इससे उद्वेलित व विचलित हो गए और फिर वे गौरवगाथा के अभियान में जुटे। और अंग्रेजों के घर यानि लंदन में नया अध्याय लिखा दस मई सन् उन्नीस सौ सात को इण्डिया हाउस में अपने सहयोगी साथियों के साथ उन्होंने अँग्रेजों से आँखें तरेरते हुए – भारत के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम की स्वर्ण जयन्ती मनाने का साहसिक कार्य किया। और यही प्रेरणा उन्हें भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास लिखने के लिए बनी। और सन् उन्नीस आठ में तथ्यात्मक ढँग से उन्होंने भारतीय स्वतन्त्रता के अप्रतिम संग्राम को पुस्तकाकार रुप दिया। लन्दन के इण्डिया हाउस से भारत की स्वतन्त्रता के लिए अनवरत – अथक रणनीति और आन्दोलनों की पटकथा रचने वाले सावरकर ने चाहे भारत में हो या विदेश भूमि में हों या जेल की कोठरी में ; वे अपने स्वतन्त्रता के व्रत को किसी न किसी रणनीति के माध्यम से पूर्ण करने के लिए सदैव उद्दत रहे ।

क्रान्तिकारी कवि, उपन्यासकार, इतिहासकार, विद्वान, दार्शनिक, कानूनविद् ,समाजसुधारक व अखण्ड भारत के जाज्वल्यमान स्तम्भ सावरकर ने अपना सर्वस्व राष्ट्र के लिए सौंप दिया। उन सावरकर का भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में योगदान अतुलनीय है, जिसे अकादमिक तौर पर सत्तासंरक्षण में विकृत करने के अनेकानेक षड्यन्त्रों के उपरान्त भी वामपंथी मिटा पाने में असफल ही रहे। हालाँकि जब सावरकर के समक्ष वे किसी पसंघे में नहीं टिक पाए – तो वे सभी सावरकर पर माफी माँगने व गाँधीजी की हत्या में संलिप्तता, भारत विभाजन के दुष्प्रचार और मिथ्यारोप लगाने में वर्षों से अनवरत जुटे हुए हैं। किन्तु वे न तो कभी सावरकर को समझ सकते हैं। और न ही भारतीय जनमानस के अन्दर सावरकर के प्रति आदर व श्रध्दा को कम कर सकते हैं।

सावरकर पर किताब लिखने वाले विक्रम सम्पत बतलाते हैं कि- सावरकर ने अपनी याचिकाओं के सम्बन्ध में स्वयं ‘मेरा आजन्म कारावास’ में लिखा है। और उनकी सभी याचिकाएँ उसी फॉर्मेट में हैं, जिस फॉर्मेट में उस समय राजनैतिक बन्दी याचिकाएँ प्रस्तुत करते थे। छठवीं याचिका के लिए महात्मा गाँधी ने उन्हें स्वयं सलाह दी थी‌। और महात्मा गाँधी स्वयं सावरकर बन्धुओं की मुक्ति के लिए अपने स्तर पर प्रयासरत थे। इस बावत्। महात्मा गाँधी ने स्वयं छब्बीस मई सन् उन्नीस सौ बीस व सन् उन्नीस सौ इक्कीस में अपने पत्र ‘यंग इण्डिया’ में लेख लिखा था। जिसमें सावरकर बन्धुओं के विषय में विस्तृत विवेचन के साथ अँग्रेज सरकार से उन्हें छोड़ने के लिए कहते हैं।

यह सबकुछ ऐतिहासिक तौर पर दर्ज है, कोई भी इसका अवलोकन कर सकता है। तथ्यों के आलोक में जहाँ सावरकर के प्रति दुस्प्रचार करने वाले बेदम पिटते हैं। तो वहीं गाँधी हत्या के आरोप में भले ही उन्हें जेल जानी पड़ी हो लेकिन अन्ततोगत्वा भारतीय सर्वोच्च न्यायालय की अग्निपरीक्षा से भी सावरकर तपकर कुन्दन की भाँति निष्कलंक निकल कर आते हैं।

सावरकर के विषय में यदि हम आधुनिक सन्दर्भ में बात करें- तो न्यायपालिका हर बार उन्हें निर्दोष सिध्द करती है। किन्तु सावरकर के विरुद्ध ऐतिहासिक रुप से पर्याप्त कानूनी प्रमाण है ; ऐसा उनको अपमानित करने वाली कुंठित बिरादरी हमेशा कहती रहती है।

यदि सावरकर के विरुद्ध गाँधी हत्या में संलिप्त होने के कोई भी प्रमाण होते तो – क्या न्यायपालिका संज्ञान में लेकर उन्हें अपराधी सिध्द नहीं करती? यदि सावरकर गाँधीजी की हत्या में संलिप्त होते तो क्या सन् पैंसठ में गठित कपूर आयोग उन्हें दोषी सिध्द नहीं करता?

और ऊपर से कपूर आयोग की रिपोर्ट पूर्व प्रधानमंत्री इन्दिरा के शासनकाल में आई थी। ऐसे में यदि सावरकर नाममात्र के लिए भी संलिप्त होते – तो क्या तत्कालीन इन्दिरा गाँधी सरकार सावरकर को दोषी नहीं ठहराती? किन्तु ‘साँच को आँच’ क्या की भाँति सावरकर सर्वोच्च न्यायालय, जाँच आयोगों के द्वारा सदैव दोषमुक्त सिध्द हुए। बल्कि इन्दिरा गाँधी ने वीर सावरकर के अप्रतिम योगदान को ध्यान में रखते हुए –
सन् उन्नीस सौ सत्तर में महान क्रान्तिकारी, राष्ट्रवादी, कवि के रुप में याद करते हुए ‘डाक टिकट’ जारी करती हैं। और इतना ही नहीं वे ‘सावरकर ट्रस्ट’ को अपने निजी कोष से ग्यारह हजार रुपये भी देती हैं। साथ ही इन्दिरा गांधी ने सन् उन्नीस सौ तिरासी में भारतीय फिल्म डिवीजन को वीर सावरकर पर एक वृत्तचित्र बनाने का आदेश देते हुए कहा था कि-

“आने वाली पीढ़ियों को ‘इस महान क्रांतिकारी’ के बारे में न सिर्फ पता चल सके बल्कि पीढ़ियाँ जान सकें कि वीर सावरकर ने देश की आजादी में क्या और किस तरह से योगदान दिया।”
(आलेख में व्यक्त विचार लेख़क के अपने है)
  संपर्क सूत्र – 9617585228

 

क्रमशः – अगले अंक में…..