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“परमात्मा कृष्ण मेरे सखा मेरे गुरु – आचार्य रजनीश (ओशो)”

“कृष्ण मानव सभ्यता का भविष्य हैं – ओशो”

ओशो का न कभी जन्म हुआ न मृत्यु। वे केवल इस वसुंधरा पर 11 दिसंबर 1931 से 19 जनवरी 1990 तक भ्रमण करने आये थे (11दिसंबर अवतरण दिवस पर सादर समर्पित है) त्वदीय पाद पंकजम्, नमामि देवी नर्मदे। माँ नर्मदा के पवित्र जल और संस्कारधानी की पवित्र मिट्टी से, धर्म, अध्यात्म, दर्शन सहित विविध विधाओं के दुर्लभ रंग बिरंगे खूबसूरत और सुगंधित अमर पुष्प विकसित हुए हैं। कभी महर्षि गौतम के रूप में, कभी जाबालि ऋषि के रुप में, तो कभी भृगु मुनि के रूप में,कभी महर्षि महेश योगी के रूप में, तो कभी आचार्य रजनीश के रूप में दृष्टिगोचर होते हैं। इनमें ओशो पारिजात (हरसिंगार) पुष्प हैं। यह निर्विवाद सत्य है कि संसार के रंगमंच पर समय समय पर महान आत्माएं अवतरित होती हैं, जो अपनी दिव्य छवि का प्रकाश बिखेर कर अपने चरण चिन्ह, आने वाली पीढ़ियों के लिए छोड़ जाती हैं, जिससे भविष्य में भी उनका मार्गदर्शन होता रहे। ऐंसी युगांतकारी आत्माओं में आचार्य रजनीश का नाम सदैव अमर रहेगा। 11 दिसंबर 1931 को मध्यप्रदेश के रायसेन जिले में कुचवाड़ा में एक छोटी सी कपड़े की दुकान थी, जिसकी आय से पूरे परिवार का भरण पोषण होता था, वह अपने दस भाई – बहनों में सबसे बड़े थे। उनकी प्रारंभिक शिक्षा गांव में हुई थी। हाई स्कूल शिक्षा के लिए वह अपने काका अमृतलाल ‘चंचल’ के अनुरोध पर गाडरवारा आ गए। पाठशाला में उनका नाम रजनीशचंद्र जैन था जिसे उन्होंने रजनीश चंद्रमोहन कर लिया था। हाई स्कूल की शिक्षा पूरी कर वे जबलपुर आ गए और सिटी कॉलेज में बी. ए. में प्रवेश लिया। वे दर्शनशास्त्र के प्राध्यापक एस. एन. एल. श्रीवास्तव से कक्षा में इतने प्रश्न पूछते थे कि उन्हें अपना विषय पढ़ाने में बड़ी कठिनाई का सामना करना पड़ता था। अंततः उन्होंने प्राचार्य से इस विद्यार्थी की अभद्रता की शिकायत की जिस पर उन्हें महाविद्यालय से निकाल दिया गया। यहां के बाद उन्होंने डी. एन. जैन महाविद्यालय में प्रवेश लिया। यहां प्रवेश देते समय प्राचार्य भगवत शरण अधौलिया ने रजनीश जी से वचन लिया था कि वे कक्षा में शांति बनाए रखेंगे और प्रश्नों की बौछार नहीं करेंगे। श्री अमृतलाल चंचल ने जो स्वयं पत्रकार थे, रजनीश को नवभारत के संपादक श्री मायाराम सुरजन से मिलाया। अब वे 75 रुपये मासिक वेतन पर नवभारत में काम करने लगे। श्रीजानकीरमण महाविद्यालय के संस्थापक प्राचार्य पं. हरिकृष्ण त्रिपाठी के साथ मिलकर “मुकुल” पत्रिका का संपादन भी किया। य सागर विश्वविद्यालय से दर्शनशास्त्र विषय में एम. ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की और तुरंत बाद रायपुर के ‘दुधाधारी कॉलेज’ में प्राध्यापक नियुक्त हो गए। वहां 6 महीने रहने के बाद जबलपुर आ गए। यहां के दर्शन शास्त्र के पारंगत विद्वान प्रो. चंद्रधर शर्मा की सहयोगी के रुप में व्याख्याता पद पर कार्य करने लगे। रजनीश नित्य प्रति भंवरताल उद्यान जाते थे और मौलश्री वृक्ष के नीचे ध्यान मुद्रा में बैठे रहते थे। वहीआ चिंतन की दशा में उन्हें कुछ ऐसा देवीय प्रकाश मिला जिसने उनके जीवन की धारा बदल दी, वे अब मानव- जीवन की गुत्थियों सुलझाने का प्रयत्न करने लगे, जिन्हें सुलझाने में अन्य दार्शनिक और चिंतक असफल हो चुके थे। लगभग 9 वर्ष व्याख्याता रहने के बाद 1969 में उन्होंने यह पद छोड़कर शिक्षा विभाग को ही तिलांजलि दे दी। बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय की विचारधारा को लेकर वे मुंबई चले गए यहां उन्होंने विभिन्न विषयों पर व्याख्यान देना आरंभ किया जिनमें यौन आकर्षण से लेकर सामाजिक – दर्शन तक की तर्क पूर्ण विवेचना होती थी। कुछ ही दिनों में उन्हें मुंबई के कृत्रिम जीवन से विरक्ति हो गई। यहां से रजनीश पूना आए जहां 6 एकड़ जमीन खरीद कर उन्होंने एक ‘कम्यून’ बनवाया यहां प्रतिदिन उनकी प्रवचन सभाएं होतीं, जिनमें हजारों जिज्ञासु शामिल होते थे। पूना में रजनीश के व्यक्तित्व इतना निखार आया कि देश-विदेश के हजारों लोग आकृष्ट होकर वहां पहुंचने लगे। सन् 1978 में यह स्थिति थी कि संसार के विभिन्न देशों से प्रतिदिन लगभग दो हजार जिज्ञासु आकर उनका प्रवचन सुनते थे। जिसमें पत्रकार भी बहुत संख्या में होते थे जो उनकी चिंतन शैली को अपने देश की पत्र-पत्रिकाओं में समुचित स्थान देकर उसे प्रचारित करते। इससे उनकी कीर्ति द्विगुणित हो गई और ज्ञान की सुगंध देश की सीमाओं को पार कर दूर-दूर तक फैल गई। सन् 1981 में रजनीश अमेरिका ‘ऑरेगान प्रांत चले गए। वहां उनके शिष्यों ने 310 किलोमीटर लंबी दलदल की 400 एकड़ भूमि को अपने अथक परिश्रम से’ ‘नंदन – कानन’ में परिवर्तित कर दिया। इस मानव निर्मित स्वर्ग में सभी आवश्यकताओं की प्रतिपूर्ति हो जाती थी। जब अमेरिका में स्थाई रूप से शांति पूर्वक जीवन बिता रहे थे, तभी उन्हें वहां के कट्टर ईसाई धर्मावलंबियों का कोप भाजन बनना पड़ा जो उनके विद्रोही विचारों के प्रमुख आलोचक थे। रजनीश जीवन को आनंदमय बनाने का जो संदेश देते थे, वह ईसाईयों की स्थापित मान्यताओं के विपरीत था। इन मान्यताओं के विपरीत प्रचार को उनके विरोधी सहन नहीं कर पाए। इन लोगों ने संगठित रूप से पूरे अमेरिका में उनके विरुद्ध भीषण आंदोलन किया जिसमें उन्हें नास्तिक, आनंदजीवी तथा उच्छृंकल ठहरा दिया और अमेरिकन सरकार पर दबाव डाला कि उन्हें जेल में डाल दिया जाए, और आप्रवासी कानून के अंतर्गत उन पर मुकदमा चलाया गया। अमेरिकी सरकार को चर्च के आंदोलन के आगे झुकना पड़ा और उन्हें बंदी बनाकर कारागृह में डाल दिया गया। कुछ समय बाद बंदी जीवन से मुक्त होते ही उन्होंने दक्षिण अमेरिका और यूरोप के बहुत से देशों में आवास के लिए प्रयास किया परंतु ईसाईयत और पोप के विरोध के कारण असफलता ही हाथ लगी। विवश होकर 29 जनवरी सन् 1986 में भारत लौट आए और अस्वस्थ रहने लगे थे क्योंकि अमेरिका के मार्शल जेल में उन्हें थैलियम नामक दिया गया था। जिससे उनका असमय ही शरीर टूटने लगा और 19 जनवरी सन् 1990 को उनके जीवन का पटाक्षेप हुआ। संस्कारधानी में 21 वर्ष बीते और यहीं मौलश्री वृक्ष के नीचे दिव्य ज्ञान प्राप्त हुआ। ओशो के आकार का आकलन करना अत्यंत दुष्कर कार्य है क्योंकि व्यक्तिव बहुआयामी हैं और उसकी सीमायें अनंत, पर इतना सहज और सरल भी है कि “जीवन एक बार मिलता है जी भर के जियो आनंद से जियो”। आनंद का दूसरा नाम ओशो है – कहना अतिशयोक्ति न होगी। ओशो के इस आनंद के आदर्श हैं – श्रीकृष्ण। रजनीश कहते हैं कि “श्री कृष्ण जैंसा बहुआयामी व्यक्तित्व इस पृथ्वी पर नहीं हुआ। जीसस, महावीर स्वामी, बुद्ध से पृथक हैं श्रीकृष्ण! जीवन की उदासी से दूर सब कुछ जानते हुए भी श्रीकृष्ण जीवन में आनंद का संदेश देते हैं, वो नाचते हैं गाते हैं। श्रीकृष्ण को अतीत में ठीक – ठीक नहीं समझा जा सका परंतु वो तो भविष्य के लिए हैं उनमें ही जीवन का भविष्य है”।

कृष्ण ही परमात्मा हैं, श्रीकृष्ण के कर्म (साधारण मनुष्य)- कर्म करना ही कर्म नहीं जब तक मैं कर्ता हूँ का भाव न हो! अकर्म (सन्यासी) – ऐंसा कर्म जिसमें कर्ता का भाव न हो अर्थात मैं का भाव न हो! विकर्म (परमात्मा) – श्वांस के लेना, खून की गति, भोजन का पचना आदि की व्याख्या से प्रभावित हैं। कृष्ण का जन्म अंधेरे (अमावस) में हुआ, सभी का जन्म अंधेरे में ही होता है, क्योंकि जन्म की प्रक्रिया ही रहस्यमय है। बीज अंधेरे में फूटता है उजाले में नहीं। कविता का भी सृजन अनकांशस डार्कनेस से होता है। चित्र का जन्म मन की अतल गहराईयों के अंधकार में होता है।समाधि का जन्म, ध्यान का जन्म भी अंधकार में होता है, यहाँ गहन अंधकार का अर्थ है जहाँ बुद्धि का प्रकाश जरा भी नहीं पहुँचता। (वैंसे रजनीश का शाब्दिक अर्थ भी है – अंधेरे का ईश्वर) कृष्ण – आकर्षण का केंद्र है, कशिश का केंद्र (सेंटर ऑव ग्रेविटेशन), वही केंद्र आत्मा है, एक प्रकार से हर व्यक्ति का जन्म कृष्ण का ही जन्म है, यह बोध कि शरीर ही नहीं हूँ आत्मा हूँ इसलिए श्रीकृष्ण अद्भुत अद्वैत हैं। इसलिए आचार्य रजनीश कहा कि “कृष्ण मेरे सखा, मेरे गुरु।” ओशो ने यह भी कहा कि “कृष्ण मानव सभ्यता का भविष्य हैं”। कबीर की भाँति धर्मनिरपेक्ष हैं, एक विश्व शासन से वसुधैव कुटुम्बकम् के आदर्श को पल्लवित और पुष्पित करते हैं। नव सन्यास – अद्वितीय विचार है जिसमें गृह त्याग नहीं करना है। जोरबा टु बौद्ध – जोरबा भोग विलास से डूबा व्यक्ति (29 वर्ष की अवस्था तक बुद्ध जोरबा ही थे) और वही बुद्ध के रुप में निर्वाण पाया हुआ। अब अंत में “संभोग से समाधि” की ओर! संभोग के बारे में ओशो ने कहा कि था कि “जिस प्रक्रिया से हमारा जन्म होता है वह अपवित्र कैंसे हो सकती है”? संभोग का इतना आकर्षण क्षणिक समाधि के लिए है, संभोग से आप उस दिन मुक्त होंगे, जिस दिन आपको समाधि, बिना संभोग के हासिल होगी। संभोग का आदर्श तो यही है कि” पति अपनी पत्नी के पास ऐंसे जाये जैंसे कोई मंदिर में जाता है, पत्नी अपने पति के पास ऐंसे जाये, जैसे कोई परमात्मा के पास जाता है- क्योंकि जब दो प्रेमी संभोग करते हैं तो वे वास्तव में परमात्मा के मंदिर से गुजरते हैं। जय श्री कृष्ण और फिर ये भी कि” जाकी रही भावना जैंसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैंसी”। मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ना, कुंडे कुंडे नवं पय:”। उधर एथेंस वासी सुकरात को हीमलकाॅक (जहर) देते हैं इधर अमेरिका के लोग ओशो को “थेलियम”! परंतु ये दोनों तत्कालीन समुदाय यह नहीं जानते थे कि दोनों अमर हैं।

 डाॅ. आनंद सिंह राणा
श्रीजानकीरमण महाविद्यालय एवं
इतिहास संकलन समिति जबलपुर
संपर्क सूत्र – 7987102901