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“भक्त प्रहलाद की रक्षार्थ भगवान् विष्णु बने नृसिंह (नरसिंह)”

– डॉ. आनंद सिंह राणा

ऐतिहासिक और पौराणिक साक्ष्यों के आलोक में संपूर्ण विश्व में भारत एकमात्र ऐंसा देश है जहां भगवान ने कभी सुर – असुर, ऋषि – मुनियों, दैत्य – राक्षसों और स्त्री-पुरुष को वरदान और आशीर्वाद देने में कभी भेद नहीं किया। जिसने जैंसी तपस्या की उसे वैंसा ही वरदान मिला। भगवान् से प्राप्त वरदान और आशीर्वाद का जब तक सदुपयोग हुआ तब तक कुशल क्षेम रहा परंतु जब दुरुपयोग हुआ तब भी भगवान् ने वरदान को यथा स्थिति में रखते हुए ऐंसी लीला रचते थे कि वरदान पर आंच भी न आए और आसुरी प्रवृत्ति का भी अंत हो जाए।

यह बात वामपंथी, ईसाई, मुस्लिम और तथाकथित सेक्युलर विद्वानों की समझ से परे है। इसलिए इन तथाकथित विद्वानों ने हिंदुत्व को क्षत विक्षत करने के लिए भारतीयों को छलपूर्वक भड़का कर धर्म, वर्ण,और जाति का भेद उपजाकर संघर्ष को पैदा किया। यह मत प्रवाह ध्वस्त होना चाहिए। एतदर्थ यहाँ सुर-असुर को लेकर विमर्श करना इसलिए समीचीन है क्योंकि विषय भगवान् नृसिंह प्राकट्योत्सव दिवस है। अब देखिए न वामियों, ईसाई, मुस्लिम और तथाकथित सेक्यूलरों विद्वानों ने सुर-असुर की अवधारणा को समझे बिना उसकी आर्य – अनार्य के रुप में व्याख्या कर देश के समाज को दो भागों में विभाजित करने का कुत्सित प्रयास किया है तथा यह दिखाया है कि भारत देश में हमेशा असुरों के साथ अन्याय किया गया, उन्हें छल पूर्वक मारा गया और दलितों, दमितों के साथ नस्लीय तथा जातिगत रुप से परिभाषित कर वैमनस्यता पैदा की है, परंतु यह कभी स्पष्ट करने की कोशिश नहीं की गई कि भगवान् ने असुरों को भी सम भाव से आशीर्वाद दिया और उन्हें मनोवांछित वरदान भी प्रदान किया और उनकी रक्षा भी की है। यद्किंचित यह भी कि महान् समाज सुधारक महात्मा जोतिबा फुले जी की पुस्तक “गुलामगिरी” में लिखी बातें उनके दृष्टिकोण से सही हो सकती हैं परंतु व्यापक दृष्टिकोण से देखा जाए तो उसका दूसरा पक्ष भी है जिसे शोध आलेख में उद्धृत करने का प्रयास किया है।

असुरराज बलि को भगवान् विष्णु का आशीर्वाद प्राप्त था परंतु वामन अवतार लेकर भगवान् विष्णु ने उनका समूल विनाश नहीं किया वरन् पाताल लोक सौंपा और माँ लक्ष्मी ने राजा बलि को रक्षा सूत्र बांधकर अपना भाई बनाया इसी के साथ रक्षाबंधन का महान् पर्व भी प्रारंभ हुआ। उद्भट विद्वान रावण भी महादेव और ब्रम्हा के आशीर्वाद से ही महाबली बना था। रावण ने शिव तांडव स्रोत लिखा था जो हिन्दुओं का कंठहार है। ऐंसे सैकड़ों उदाहरण दिए जा सकते हैं। भारत में सुर और असुर का विभाजन प्रवृत्तियों के आधार पर हुआ है परंतु भेदभाव कभी नहीं हुआ। कभी – कभी ऐंसे अवसर भी सामने आए जब ईश्वर विभिन्न स्वरूपों में सुर और असुरों को बचाने के लिए आमने-सामने आए हैं।

बाणासुर के प्रकरण में महादेव स्वयं श्रीकृष्ण के विरुद्ध बाणासुर की रक्षा के लिए सामने आ गए थे और युद्ध भी हुआ परंतु अंत में सब कुशल मंगल हुआ। अब महर्षि कश्यप के पुत्र प्रवृत्ति के अनुसार हिरण्यकश्यप असुर रुप में परिभाषित किए गए, उन्हें ब्रह्मा का अनूठा वरदान प्राप्त हुआ था परंतु जब वे वरदान का दुरुपयोग करने लगे तब उनके पुत्र भक्त प्रह्लाद के लिए भगवान विष्णु ने नृसिंह का अवतार लिया। वहीं भगवान् नृसिंह को मूल रुप में लाने के लिए भगवान् शिव ने शरभपुरीय अवतार लिया।भगवान् नरसिंह(नृसिंह) प्रगटोत्सव एवं भगवान् शिव का शरभपुरीय अवतार, एक अनूठा उपाख्यान है।

प्रस्तुत अद्भुत वृतांत का उद्देश्य केवल धार्मिक नहीं है, वरन् अहम की मनोवृत्ति को साझा करना है कि -अहम ही,वहम है, अहम ही सर्वनाश है। किस प्रकार से महादेव ने, भगवान् विष्णु को ये समझाया!परंतु वास्तव में ये दोनों महाशक्तियों की लीला थी।

भगवान् विष्णु का “नरसिंह” स्वरुप में अवतरण वैशाख माह की शुक्ल चतुर्दशी को हुआ था। अब वृतांत विस्तार से इस प्रकार है कि श्री विष्णु ने नरसिंह अवतार तो ले लिया परंतु हिरण्यकशिपु (हिरण्यकश्यप) के वध के उपरांत क्रोधाग्नि और भड़क गयी। भक्त प्रह्लाद ने मनाने की बहुत कोशिश की पर नरसिंह शांत नहीं हुए, फलस्वरूप ब्रह्मांड की उष्मा बढ़ने लगी और भयावह वातावरण बनने लगा था और भस्म हो जाने की आशंका होने लगी। तब ऐंसी विषम परिस्थिति में सभी देवी-देवताओं ने ब्रम्हा से याचना की, तदुपरांत सभी महादेव के पास पहुंचे। सारा वृत्तांत महादेव को सुनाया। महादेव ने भगवान् नरसिंह को समझाने के लिए वीरभद्र को भेजा पर बात नहीं बनी वरन् भगवान् नरसिंह और उग्र हो गये। भगवान् नरसिंह ने वीरभद्र पर आक्रमण कर दिया परिणामस्वरूप भयंकर युद्ध आरंभ हो गया परंतु कोई अनिष्ट हो इसके पूर्व ही वीरभद्र ने इस अनिर्णायक युद्ध की सूचना महादेव तक पहुंचाई। अब महोदव स्वयं उपस्थित हुए, यह देखकर भगवान् नरसिंह और भड़क गये और उन्होंने महादेव पर आक्रमण कर दिया। फिर क्या था? महादेव को भी क्रोध आ गया और उन्होंने एक अति भयंकर स्वरूप ले लिया जिसे “शरभपुरीय”अर्थात् सिंह, पक्षी, गज का मिश्रित आठ हाथों वाला स्वरूप का अवतार कहते हैं। 18 दिनों के महाविनाशकारी युद्ध के उपरांत भगवान् नरसिंह क्रोध की चरम सीमा पार कर गये और चेतना समाप्त हो गयी परंतु महादेव पूरी चेतना में थे और उन्हें लगा कि यदि युद्ध और चला तो कहीं उनकी चेतना भी समाप्त न हो जाए और यदि ऐंसा हुआ तो महाप्रलय आ जायेगा और सृष्टि ही समाप्त हो जाएगी। इसलिए शरभ अर्थात् भगवान् शिव ने भगवान् नरसिंह को अपनी पूंछ में लपेट लिया और पाताल में प्रवेश कर लिया। एक लंबे अंतराल तक नरसिंह ने संघर्ष किया पर शरभ की पूंछ से न छूट सके। शनैः शनैः भगवान् नरसिंह का क्रोध शांत हुआ और वो महाकाल को पहचान गये तथा क्षमा याचना की। नारायण और ब्रह्मा ने भी मनाया तब शरभ अर्थात् भगवान् शिव ने भगवान् नरसिंह को मुक्त किया।

भगवान् नरसिंह ने अपने अवसान के पूर्व भगवान् शिव से प्रार्थना की, कि उनके इस स्वरूप को त्यागने पर शिव उनके चर्म पर आसन ग्रहण करेंगे। महादेव ने भाव विभोर होकर स्वीकार किया और तबसे महादेव उसी आसन पर विराजमान होते हैं। शिवमहापुराण, शतरुद्र संहिता में यह घटना बहुत रोचक ढंग से वर्णित है l नरसिंह बोले
यदा यदा ममाज्ञेयं मति: स्याद् गर्वदूषिता l
तदा तदा अपनेतव्या त्वयैव परमेश्वर ll
अर्थात् , हे परमेश्वर ! जब जब भी मेरी बुद्धि अहंकार दोष से दूषित हो जाय तब आप मेरी इस दुर्बुद्धि को दूर करें l इस प्रकार भक्त प्रह्लाद के कारण दो महान् अवतारों के दर्शन प्राप्त हुए।।