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विश्वव्यापी हिंदू संस्कृति -21

– डॉ. नितिन सहारिया

(कोरिया व मंगोलिया में हिन्दुत्व का आलोक)

जापान और चीन की सीमा से लगा हुआ कोरिया अब दो भागों में विभक्त है। उत्तर कोरिया में साम्यवादी शासन है और दक्षिण कोरिया में राष्ट्रवादी। उससे पूर्व समूचा कोरिया एक था और वहां बौद्ध- धर्म का एक छत्र प्रभाव था। अब तो वहां नास्तिक, ईसाई एवं मुसलमान भी बहुत हैं।

कोरिया में भी चीन, जापान की तरह भारतीय धर्म प्रचारक पहुंचे थे और उन्होंने धर्म विजय अभियान के प्रकाश से उस क्षेत्र को भी आलोकित किया था। पीछे उत्साही चीनी भिक्षु भी अपने समीपवर्ती क्षेत्र में जाते रहे और वहां धर्म-चक्र प्रवर्तन का उत्तरदायित्व संभालते रहे।

कोरिया के वज्रगिरी में आचार्य विहारों के भिक्षु संस्कृत मिश्रित कोरियाई भाषा बोलते हैं। इस देश में आचार्य मल्लानंद सन 384 में पहुंचे और उनके प्रयत्न से ‘सुंगमोन्सा’ तथा ‘इब्बुल्लन्सा’ वौद्ध विहारों की स्थापना हुई। इसके बाद अन्यान्य प्रचारक वहां जाते रहे। कोरिया का ‘हेचो ‘ नामक एक बुद्द भक्त भारत की तीर्थ यात्रा करने सातवीं सदी में आया। उसने अपनी यात्रा वृतांत में लिखा था । संस्कृत भाषा के कोरियाई विद्वान ‘ बुन चडक’ ने ‘विज्ञप्ति मात्रता’ ग्रंथ पर सुंदर भाष्य लिखा। सिल्ला वंशी कोरियाई सम्राट भी बौद्ध- धर्म के अनुयाई रहे और ध्यान योग की साधनाओं के अभ्यासी बने। प्राचीन कोरियाई साहित्य तथा भवन निर्माण कला पर भारतीयता की गहरी छाप है। ‘सुखगोलाम’ गुफाएं भारती गुफाओं की शैली पर ही बनी हैं। मंदिरों में बजने वाले वाद्य यंत्र वही हैं, जो भारत में प्रयुक्त होते हैं। सम्राट ताईजो की नीति थी कि देश में अधिक मंदिर बनाएं जाएं, ताकि धर्मनिष्ठा की वृद्धि हो।

कोरिया का सबसे बड़ा बौद्ध ग्रंथ ‘महाधर्म’ है, जो संस्कृत से कोरियाई भाषा में अनुवादित हुआ है और लकड़ी के टप्पे वाले प्रेस में छपा है। उसकी विशालता को देखते हुए उसे संसार का अद्भुत विस्तार वाला ग्रंथ कहा जा सकता है। उस देश की लिपि ‘हागेडल ‘ चीनी -जापानी पड़ोसी भाषाओं से सर्वथा भिन्न है। इसका निर्माण संस्कृत वर्णमाला और उसकी ध्यान पद्धति का सहारा लेकर किया गया है।

सन 384 में एक दूसरा चीनी भिक्षु कोरिया के ‘पाकचि’ क्षेत्र में पहुंचा। उसका नाम था- ‘मसनद’। इसकी प्रचार शैली भी ‘सुन दो ‘ जैसी ही थी। उसके प्रभाव से पाकचि का राज्य धर्म भी वौद्ध बन गया और प्रजा ने उसी धर्म को अंगीकार कर लिया। सांची के बौद्ध प्रचारक सिल्ला पहुंचे और चौथी शादी के प्रथम चरण में वहां का राजधर्म भी वौद्ध बन गया। इस प्रकार से कुछ ही वर्षों के प्रयत्न से कोरिया के तीनों भागों में बौद्ध धर्म का झंडा फहराने लगा। पाकचि के शासकों ने धर्म -विजय में विशेष उत्साह दिखाया। सन 552 में कोरिया नरेश सिमाई ने एक प्रतिनिधिमंडल जापान के राजा किम्मई के पास भेजा और उस देश में बौद्ध धर्म की सुविधाएं देने का अनुरोध किया। यहीं से जापान में भी वौद्ध धर्म के प्रसार का सिलसिला आरंभ हो गया। उन दिनों कोरिया आर्थिक और सांस्कृतिक दृष्टि से बहुत समृद्ध था। उसका व्यापार भारत, तिब्बत, चीन, ईरान,जापान आदि तक फैला हुआ था। व्यवसाय का आदान-प्रदान के साथ-साथ कोरिया से बौद्ध धर्म भी अन्य अन्य देशों को निर्यात होता रहा।

सन 202 में जापानी सेनाओं ने कोरिया को अपने अधीन कर लिया और कई शताब्दियों तक उस पर अधिकार रखा। राजनीतिक दृष्टि से जापान विजई और कोरिया पराजित रहा, पर धार्मिक दृष्टि कोरियाई बौद्ध धर्म जापानी प्रजा पर हावी होता चला गया। धार्मिक दृष्टि से वह पराजय भी विजय के रूप में परिणित हुई। कोरिया और जापान का संपर्क बढा। इसमें धर्म और संस्कृति का भी आदान-प्रदान हुआ। जापान में उन दिनों बहुदेववादी ‘शिंतो’ धर्म प्रचलित था। उसके सिद्धांत और प्रतिपादन ऐसे ही वेसिर्- पैर के थे। बौद्ध धर्म का दर्शन उसकी तुलना में बहुत ही समाधान कारक था। अस्तु प्रबुद्ध लोगों को उसे अपनाने में कठिनाई नहीं हुई और जापान में उसका विस्तार तेजी से होने लगा। सन 522 में एक चीनी भिक्षु ‘शिवतात्सु’ कोरिया होते हुए जापान पहुंचा और उसने वहां की जनता को वौद्ध संदेशों से अवगत कराके श्रद्धा भरा वातावरण बनाया।

कोरिया के ‘कुदारा’ राज्य के शासक ‘सिमाई’ ने सन 552 में जापान नरेश ‘किमाई ‘ की सेवा में बुद्ध की स्वर्ण प्रतिमा धर्मग्रंथ तथा लंबा पत्र एक बौद्ध भिक्षु के साथ भेजा, जिसमें बुद्ध की महत्ता बताते हुए उसे स्वीकार करने का अनुरोध किया गया था। राजा ने इन वस्तुओं को स्वीकार किया और आंशिक रूप से उन शिक्षाओं पर चलना आरंभ कर दिया। इसके बाद यह प्रयत्न और भी उत्साह के साथ जारी रहा और कोरिया से जापान के लिए बौद्ध भिक्षु और भी भिक्षुणियां लगातार आते जाते रहे। सन 577 में कोरिया की उत्साही और विद्वान भिक्षुणियां जापान पहुंची और उन्होंने वहां “जापान समर्थ महिला संघ” स्थापित कर दिया। जापानी नव- दीक्षित महिलाएं कोरिया के विहारों में धर्म शिक्षा प्राप्त करके वापस लौटी तो उनका महिला- वर्ग में बहुत स्वागत हुआ और घर-घर में बौद्ध धर्म की जड़ें जमीं। रानी ‘सुई को’ का शासनकाल 593 से 628 तक रहा उसने बौद्ध धर्म अंगीकार किया, फलत: प्रजाजन में भी उसके लिए आकर्षण एवं उत्साह बढ़ता चला गया।

ईसा से 400 वर्ष पूर्व कोरिया के तीन भाग थे। उत्तरी रियासत को ‘बागोरिया’ कहा जाता है। मध्यवर्ती रियासत को ‘पिय बछे’ कहते थे और दक्षिणी रियासत ‘सिल्ला’ कहलाती थी। वास्तव में सिल्ला वाले ही अधिक साधन संपन्न और प्रभावी थे। उन्होंने ही दोनों रियासतों को मिटाकर कोरिया का एकीकरण किया।

ईसा से 372 वर्ष पूर्व चीनी -बौद्ध -भिक्षुओं की एक मंडली ‘सु दो’ के नेतृत्व में कोरिया पहुंची और वहां अपने बौद्ध धर्म की जड़ें जमाई। इस प्रकार के कार्य की सहायता करने के लिए भारतीय बौद्ध विद्वान ‘मरन्ता’ वहां पहुंचा और धर्म- विजय अभियान को सफलतापूर्वक आगे बढ़ाया। यह कार्य शांतिपूर्वक किंतु अत्यंत उत्साह के साथ चलता रहा और लगभग सारा कोरिया 700 वर्षों के भीतर बौद्ध धर्मावलंबी हो गया। सन 518 में उसे विधिवत राज्य धर्म घोषित कर दिया गया। इस अवधि में बौद्ध मंदिरों और विहारों के निर्माण की धूम मच गई। हजारों की संख्या में भिक्षुओं का निर्वाह एवं प्रशिक्षण का प्रबंध इन धर्म संस्थानों में चलता था और वह प्रशिक्षित बौद्ध विद्वान न केवल कोरिया के वरन समीपवर्ती अन्य देशों में भी धर्म प्रचार के लिए जाते थे। जापान में बौद्ध- धर्म के निर्यात का श्रेय यदि कोरियाई भिक्षुओं को दिया जाए तो उसमें कुछ भी अत्युक्ति ना होगी।

धर्माचार्य ‘बोनियों’ को कोरिया में अत्यंत सम्मान के साथ स्मरण किया जाता है। उनने बौद्ध साहित्य को कोरियाई भाषा में अनुवाद करने में अधिक परिश्रम किया और धर्म संस्थानों के निर्माण, संचालन से लेकर प्रचार अभियान की बागडोर बहुत ही दूरदर्शिता के साथ संभाली , उनकी प्रतिभा से एक राजकुमारी अत्यंत प्रभावित हुई और यह घनिष्ठा इस हद तक बढ़ी कि दोनों को विवाह सूत्र में आवद्ध होना पड़ा। इनके सहयोग से जो पुत्र उत्पन्न हुआ उसने चीनी और कोरियाई बौद्ध संस्थानों के बीच घनिष्ठ सहयोग विनिर्मित करने के लिए अद्भुत भूमिका निभाई। उसने कोरियाई लिपि में भी महत्वपूर्ण सुधार किए। 12 वीं सदी के अंत तक कोरिया में बौद्ध- धर्म खूब फला-फूला। भिक्षु विवाहित होकर भी रह सकते हैं, इस सुविधाजनक परंपरा ने उस देश में नए प्रतिभाशाली धर्म – प्रचारकों को बहुत बढाया।

तेरहवीं सदी के आरंभ में मंगोलों ने कोरिया पर चढ़ाई कर दी और उसे बुरी तरह रौंद डाला। उस उत्पीड़न से बौद्ध धर्म को भी बहुत हानि उठानी पड़ी। राजा और दरबारियों को सारी कोरिया भूमि छोड़कर कंगना टापू में छुप कर अपनी जान बचानी पड़ी। इन्हीं दुर्दीनो मे दिनों में धार्मिक लोगों के सहयोग से एक अद्भुत योजना यह बनी कि लकड़ी के टप्पों पर बौद्ध धर्म के सारे ग्रंथों को खोद लिया जाए और उनसे ग्रंथ छापे जाएं। ‘त्रिपिटक’ जैसे विशालकाय ग्रंथ का कोरियाई भाषा में मुद्रण इसी पद्धति से संभव हुआ। अन्य कितने ही धर्म ग्रंथ भी इसी प्रकार छपे। उनकी संख्या 80258 है  उनके मुद्रण में 16 वर्ष लगे और सभी प्रकाशन अभी भी ‘हाहंसा’ बिहार में सुरक्षित हैं, जिसे देखने के लिए बहुत जिज्ञासु वहां पहुंचते हैं और इस दुस्साहस पर आश्चर्यचकित रह जाते हैं। यह संग्रहालय संसार के बौद्ध धर्म में अपने ढंग का अनूठा है।

मंगोल आधिपत्य से छुटकारा अच्छी तरह मिल भी ना पाया था कि जापानियों ने कोरिया पर कब्जा कर लिया। इस राजनीतिक उथल-पुथल के बीच भी कोरिया, मंगोलिया, चीन, जापान के बीच धार्मिक आदान-प्रदान का सिलसिला चलता रहा और पारस्परिक सहयोग से बौद्ध धर्म की भावनाएं लोकमानस में प्रतिस्थापित करने का क्रम अनवरत रूप से बढ़ता ही रहा।