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भारतीय संस्कृति की विराट सहिष्णुता

भारतीय संस्कृति सत्य सनातन-हिंदू संस्कृति है। जिसे अन्य नामों में देव संस्कृति, आर्य संस्कृति, वैदिक संस्कृति ,हिंदू संस्कृति, मानवीय संस्कृति, वैश्विक संस्कृति से संबोधित (पुकारा) किया जाता है। यह विश्व की प्रथम संस्कृति है। वेद के अनुसार यह ‘अनादि’ Beginning less, आध्यात्मिक Spiritual संस्कृति है। यजुर्वेद 4/14 कहता है – “सा प्रथमा संस्कृति विश्ववारा:” अर्थात- सनातन संस्कृति है। सनातन का अर्थ है – “जो सदा से है व सदा रहने वाली है। अर्थात जो तीनों कालों में नित्य है, मौजूद है, जिसका ना कोई आदि है ना ही कोई अंत है।” अर्थात यह अजर-अमर, अविनाशी, कालजयी, अनंत Infinite, अखंड Monolithic, शाश्वत Immortal, वैस्विक संस्कृति Global culture है। इसमें ऐसे श्रेष्ठ सनातन मानवीय, आध्यात्मिक मूल्यों का समावेश है। जिसके कारण यह अमर, अनंत, वैश्विक संस्कृति है। इसमें दैवीय तत्व -आध्यात्मिकता की प्रधानता है। या इसे यों कहें कि – सृष्टि के आदिकाल से दैवीय चेतना -अध्यात्म का जो अंनत, अखंड प्रवाह चला रहा है, जिसका प्रतीक भगवा ध्वज है। यह वही मंगलमयी वैश्विक हिंदू संस्कृति है।

भारतीय संस्कृति में विराट सहिष्णुता की भावना का समावेश है। यह विराट सागर की तरह सभी दिशाओं से आने वाली नदियों तथा विभिन्न विचारधाराओं ,विविध पंथो, सभी प्रकार की विविधता को अपने में पचा (समाहित) लेती है। जिस तरह गंगा में विभिन्न नदी, नाले मिलकर विलीन हो जाते हैं। अपना अस्तित्व खो कर वह सभी गंगा ही बन जाते हैं, व गंगा ही कहाते हैं। इसी तरह से भारत में संपूर्ण विश्व से लोग आए कोई पर्यटक बनकर आया तो कोई शरणार्थी व व्यापारी के रूप में भारत आया। वह यहीं का होकर रह गया फिर उसका मन यहां से जाने का हुआ ही नहीं। यहां की शांति, सौंदर्य, संस्कृति की विविधता ,लोगों का भोलापन, खानपान, आध्यात्मिकता, प्रकृति का सौंदर्य ऐसा भाया व उसने ऐसा प्रभावित किया कि फ़िर यहां से कहीं जाने का मन ही नहीं हुआ। आज भी हजारों विदेशी भारत के धार्मिक नगरों बनारस ,प्रयाग ,मथुरा ,हरिद्वार ,पुरी, अवंतिका ,ऋषिकेश में डेरा डाले हुए हैं। भारत के योग- अध्यात्म में अपने को ढाल रहे हैं। शांति व जीवन लक्ष्य को प्राप्त कर रहे हैं।

भारतीय संस्कृति ‘साम्यवादी’ नहीं “समन्वयवादी’ संस्कृति है। इसमें ‘ही’ नहीं ‘भी’ की प्रधानता है। अर्थात में ही नहीं तुम भी सही। समन्वय शब्द स्वयं विराट ह्रदय या विचार व व्यवहार का घोतक है। जैसे मां अपने सभी बच्चों को समान रूप से प्यार व स्नेह करती है। बच्चा जब कष्ट में पड़कर रोने लगता है। तब मां बेचैन होकर धूल या गंदगी में शने (लिपटे) हुए बच्चे को तुरंत अपनी गोदी में उठा लेती है व दुलार करने लगती है। मां माँ जैसी सहिष्णुता ,विराटता ,उदारता का भाव भारतीय संस्कृति में समाया हुआ है, जो सबको अपना मानती है व सभी के कल्याण- मंगल की कामना ही नहीं करती वरन् जतन भी करती है। तभी तो भारत की प्रार्थना में –

“सर्वे भवंतु सुखिनः ,सर्वे संतु निरामया । 
सर्वे भद्राणि पश्चयंतु, माँ कश्चित् दुख भाग भवेत् ।। 
जैसे विचार का समावेश है। भारत ने संपूर्ण विश्व को अपना विराट परिवार माना है। वहीं पश्चिमी दर्शन विश्व को बाजार या उपभोग की वस्तु मानता है। जब हम विश्व को परिवार मानेंगे तो फिर कोई पराया हुआ ही नहीं। सभी अपने ही सहोदर, बंधु- बांधव हुए। जब सब अपने परिवार जन, बंधु -बांधव हैं तो फिर कोई किसी पर आक्रमण, लूट ,फरेब, हानि व हिंसा क्यों करेगा? तब विनाश का सवाल ही नहीं उठता है। अतः भारतीय संस्कृति में भावना ,विचार व कर्म की श्रेस्ठता है। क्षुद्रता का कहीं कोई लेशमात्र भी स्थान नहीं है। वहीं पश्चिमी दर्शन ‘भी’ नही ‘ही’ के चिंतन से आरंभ होकर विनाश पर अंत होता है। जब हम अपने को ही सर्वश्रेष्ठ मानने लगते हैं, अर्थात स्वार्थ हावी हो जाता है। तब हम क्षुद्धता से ग्रसित हो जाते हैं, हमारा चिंतन एक पक्षीय, कुंठित हो जाता है। तब हमें घाटे में ही रहना पड़ता है। यही पश्चिमी विचार की मूल प्रवृत्ति है, जबकि भारतीय संस्कृति ने समय-समय पर अपने को अद्यतन (अपडेट) किया, काल के सापेक्ष अपने को संतुलित किया। इसलिए भारतीय हिंदू संस्कृति में निरंतरता है।

संस्कृति शब्द को विशेषताओं की कसौटी पर कसे जाने पर खरी सिद्ध होने में एक मात्र भारतीय संस्कृति ही समर्थ है। विश्व की अन्य संस्कृतियां तो मात्र सभ्यता हैं। सभ्यता किसी देश ,कॉल एवं परिस्थितियों को ध्यान में रखकर विनिर्मित की जाती है और उसकी सीमा उतने ही दायरे में सीमित रहती है। हर परिस्थिति और देश, काल के लिए समान रूप से उसका उपयोग नहीं हो सकता क्योंकि उसमें सैद्धांतिक कम और व्यवहारिक तथ्य अधिक होते हैं। व्यवहार तो रितुओं के परिवर्तन के साथ ही बदल जाता है। आयु का हेर -फेर भी व्यवहार बदलने को विवस कर देता है। ऐसी दशा में व्यवहार व्यवस्थाओं की प्रधानता के आधार पर बनी हुई सभ्यताएं सार्वदेशिक अथवा सर्वकालीन हो ही कैसे सकती हैं।

भारतीय संस्कृति को बौद्धिक प्रजातंत्र भी कह सकते हैं। प्रजातंत्र में नागरिकों को लेखन, भाषण, निर्वाह ,धर्म आदि के भौतिक अधिकारों की मान्यता दी गई है। विचार क्षेत्र को भी ठीक इसी तरह की मान्यता केवल भारतीय धर्म ने ही प्रदान की है, अन्य धर्म (पंथ) एक ही पैगंबर और एक ही धर्मशास्त्र और एक ही विधान को मान्यता देते हैं। अन्य प्रकार से सोचने वालों का दमन करते हैं, इसके उदाहरण के रूप में इस्लाम व ईसाई पंथ को देखा जा सकता है। दूसरे अर्थों में इसे इन पंथो की असहिष्णुता भी कह सकते हैं। यह अधिनायकवाद हुआ। इससे विवेक और चिंतन के विनाश की संभावनाएं समाप्त होती हैं। भारत में वैज्ञानिक ढंग से विचार स्वतंत्र की छूट दी है और कहा है कि नित्य की शोध पूर्व मान्यताओं से विपरीत जाती है तो उसे पूर्वजों की अवहेलना नहीं, चिंतन की प्रगति माना जाना चाहिए। यहां जनकल्याण के विवेक पर विश्वास रखा गया है। भारत में सत्य की शोध को चलने देने की मान्यता देते हुए अनेकांतवादी सहिष्णुता का परिचय दिया गया है, और यही भारत की सबसे बडी विशेषता भी है।

भारतीय संस्कृति एक ऐसी विश्व संस्कृति है ,जो मनुष्य को सच्चे अर्थों में मनुष्य बनाने की क्षमता से ओतप्रोत है। वह उच्च स्तरीय विचारणा जिससे व्यक्ति अपने आप में संतोष और उल्लास भरी अंत:स्थिति पाकर सुख और शांति से भरा पूरा जीवन जी सके, भारतीय तत्वज्ञान में कूट-कूट कर भरी है। वह आदर्शवादी क्रिया पद्धति जो सामूहिक जीवन में आत्मीयता,उदारता, सेवा स्नेह-भावना ,सहिष्णुता और सहकारिता का वातावरण उत्पन्न करती है। यह भारतीय संस्कृति के शिक्षण की मूलधारा है। इस महान तत्वज्ञान का अवगाहन भारतीय प्रजा चिरकाल तक करती रही और उसके परिणाम इस रूप में आए की यहां के नागरिकों को समस्त संसार में देवपुरुष (भूसुर) के नाम से पुकारा गया और जिस भूमि में ऐसे महामानव उत्पन्न होते हैं ,उसे स्वर्ग के नाम से संबोधित किया गया। यहां के तेतीष कोटी नागरिकों को विश्व में तेतीस कोटि देवताओं के नाम से पुकारा जाता था और जब भी भारत भूमि का स्मरण किया जाता था उसे “स्वर्गादपि गरीयसी” ही कहा जाता था।

भारतीय संस्कृति किसी वर्ग, संप्रदाय या देश ,जाति की संकीर्ण परिधियों में बंधी हुई सांप्रदायिक मान्यता नहीं है न किसी व्यक्ति विशेष या शास्त्र विशेष को आधार मानकर उसकी रचना की गई है। सार्वभौम मानवीय आदर्शों के अनुरूप उसका सृजन हुआ है और देश ,काल, पात्र के अवरोध से उसमें हेर-फेर करना पड़े ऐसी त्रुटि नहीं रखी गई है। उसे नि:संकोच सार्वभौम, सर्वकालीन और शाश्वत कहा जा सकता है। दूसरे शब्दों में भारतीय संस्कृति को हम विश्व मानव के सदैव प्रयोग में आ सकने योग्य चिंतन प्रक्रिया एवं कार्यपद्धती भी कह सकते हैं। इस स्वरूप के कारण ही उसे भूतकाल में समस्त संसार ने देखा, सराहा और स्वीकार किया था। भविष्य में भी जब इस अनैतिक भगदड़ से दुखी होकर मानव जाति को किसी संतुलित दर्शन की आवश्यकता पड़ेगी तो उस आवश्यकता की पूर्ति केवल भारतीय संस्कृति (देव संस्कृति) ही कर सकेगी।

विश्व संस्कृति माने जाने योग्य समस्त विशेषताएं इस भारतीय सनातन हिंदू संस्कृति में समग्र रूप से विद्यमान हैं। ‘विश्ववारा’ शब्द का अर्थ होता है। ”विश्ववन्कणौनीति विश्ववारा” अर्थात जो समस्त संसार द्वारा वरण की जा सके – स्वीकार की जा सके वह ‘विश्ववारा’ दूसरे शब्दों में इसे सार्वभौम Universal कह सकते हैं। ‘संस्कृति’ के लिए दूसरा शब्द ब्राह्मण ग्रंथों में ‘सोम’ आता है, सोम क्या है? “अमृतम वै सोम:” (शतपथ ब्राह्मण) अर्थात- अमृत ही सोम है। अमृत क्या है? – ज्ञान और तप से उत्पन्न हुआ आनंद। इस प्रकार भारतीय संस्कृति का तात्पर्य उस श्रद्धा से है, जो ज्ञान और तप की, विवेकयुक्त सत्प्रयत्नों की ओर हमारी भावना और क्रियाशीलता को अग्रसर करती है । इस संस्कृति को जब ,जहां जितनी मात्रा में अपनाया गया है, वहां उतना ही भौतिक समृद्धि और आत्मिक विभूति का अनुभव आस्वादन किया गया है।

व्यक्ति और समाज की विश्वव्यापी समस्याओं का समाधान करने के लिए उस संस्कृति का आश्रय लिए बिना और कोई मार्ग नहीं, जिसे ‘भारतीय संस्कृति’ कहा जाता रहा है और दूसरे शब्दों में उसे ‘विश्व संस्कृति’ भी कह सकते हैं।

महर्षि अरविंद ,स्वामी विवेकानंद, पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य के कथनो का सार- “अगले दिनों मानवता का भविष्य भारतीय संस्कृति को अपनाने पर निर्भर करेगा। अर्थात भारतीय संस्कृति -विश्व संस्कृति का रूप लेती चली जाएगी। इसी से विश्व मानवता का भविष्य उज्जवल होगा एवं संपूर्ण विश्व विनाश के कुमार्ग से हटकर शांति, सद्भाव ,सुव्यवस्था ,उज्जवल भविष्य की ओर बढ़ेगा। इसके अतिरिक्त अन्य कोई मार्ग भी विश्व शांति ,उज्जवल भविष्य का नहीं बचा है। अत: संपूर्ण विश्व मानवता को पुन: उसी प्राचीन सनातन हिंदू संस्कृति को अपनाने हेतु वापस लौटना होगा। दुखी मानवता को हिंदू संस्कृति में ही त्राण मिलेगा। वर्ष 2025 – 26 से भारतीय संस्कृति का वैश्विक स्वरूप /परम वैभव /दिग्विजय भारत/ स्वर्णिम भारत (विश्वगुरु) के रूप में संपूर्ण विश्व के समक्ष स्पष्ट होता चला जाएगा। अब यही भारत की नियति है। अतः राष्ट्र निर्माण -विश्व निर्माण की ब्रह्म बेला को पहचाने एवं अपने धर्म- कर्तव्य का निर्वाह करें।”

       लेख़क
डॉ. नितिन सहारिया
8720857296