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भारत भूमि सुजलाम, सुफलाम रही :  डॉ. मोहन भागवत जी  

हेमेन्द्र क्षीरसागर

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत संघ की दृष्टि से महाकौशल प्रांत के जबलपुर का प्रवास काफी मायनों में अहम रहा। जहां उन्होंने संघ कार्य में लगे स्वयं सेवकों से भेंट की। संचालित संघ कार्यों को देखा। वहां संगठनात्मक गतिविधियों,  सामाजिक कार्यों, प्रकल्पों तथा नूतन प्रयोगों की जानकारी ली। साथ ही राष्ट्र और समाज सेवा में प्रतिबद्ध जनों से जन संवाद कर उनके अनुभवों का लाभ लिया। इसी क्रम में सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत ने शनिवार को मानव भवन, जबलपुर में प्रबुद्ध जन संगोष्ठी को संबोधित किया। जो निहायत सारगर्भित, मौलिक और समयानुकुल रही। उल्लेखित सर संघचालक ने अपने विचारों में कहा कि, समाज में संगठन खड़ा नहीं करना है। संपूर्ण समाज को संगठित करना है। आप एक समूह में नहीं चल सकते यह आवश्यक नहीं लेकिन भारत राष्ट्र की कल्पना पश्चिम की कल्पना से अलग है। भारत भाषा, व्यापारिक हित, सत्ता, राजनैतिक विचार आदि के आधार पर एक राष्ट्र नहीं बना। भारत भूमि सुजलाम, सुफलाम रही है। भारत विविधता में एकता और वसुधैव कुटुम्बकम के तत्व दर्शन और व्यवहार के आधार पर एक राष्ट्र बना है।

उन्होंने कहा कि भाषा पूजा पद्धति के आधार पर समाज नहीं बनता। समान उद्देश्य पर चलने वाले एक समाज का निर्माण करते हैं। भारत का दर्शन ऐसा है कि किसी ने कितना कमाया उसकी प्रतिष्ठा नहीं है। इतना बांटा उसकी प्रतिष्ठा रही है। अपने मोक्ष और जगत के कल्याण के लिए जीना यह अपने समाज का दर्शन रहा है। इसी दर्शन के आधार पर अपना राष्ट्र बना है। डॉ. भागवत ने कहा कि विविधताओं की स्वीकार्यता है। विविधताओं का स्वागत है। लेकिन विविधता को भेद का आधार नहीं बनाना है। सब अपने हैं। भेदभाव ऊंच-नीच अपने जीवन दर्शन के विपरित है। हमारा व्यवहार, मन, कर्म, वचन से सद्भावना पूर्ण होना चाहिए। हमारे घर में काम करके अपना जीवन यापन करने वाले, श्रम करने वाले भी अपने सद्भाव के अधिकारी हैं। उनके सुख दुख की चिंता भी हमें करनी चाहिए।

आगे कहा, प्रकृति से इतना कुछ लेते हैं तो वृक्षारोपण, जल संरक्षण करना ही चाहिए। नागरिक अनुशासन का पालन करना चाहिए। अपने कर्तव्य पालन को ही धर्म कहा गया है। धर्म यानी पूजा पद्धति नहीं है। डॉ. भागवत ने कहा कि इस तत्व  दर्शन के आधार पर जीते हुए ज्ञान, विज्ञान, शक्ति, समृद्धि की वृद्धि करने का रास्ता अपने ऋषियों ने दिखाया है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की बात सभी तरह के संतुलन की बात हमारी संस्कृति है। सब को अपनाने वाला दर्शन ही हिंदुत्व है। संविधान की प्रस्तावना भी हिंदू की ही मूल भावना है।

वस्तुत: डॉ. मोहन भागवत का व्यक्तव मातृभूमि समर्पण, राष्ट्रवाद, सामाजिक समरसता, संगठनशीलता, जनसरोकार, सर्व धर्म समभाव, स्वाभिमान, जीवन दर्शन और हिंदुत्व एक जीवन पद्धति समेत विभिन्न पहलुओं को भारतीयता पूर्ण समेटा हुआ था। प्रासंगिक संघ, सरसंघचालक के दूरदर्शी मंतव्य राष्ट्र के वैभव, बलिदानियों का ध्येय, प्रकृति संरक्षण व संवर्धन और नवाचार के निहितार्थ सार्थक रहेगा।

लेख़क पत्रकार व स्तंभकार है।