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रामगढ़ की वीरांगना रानी अवंतीबाई

रानी अवंतीबाई महानतम वीरांगनाओं में से एक थीं। उन्होने अपने राज्य की स्वाधीनता अक्षुण्य बनाये रखने के लिये वीरोचित साहस और शौर्य का प्रदर्शन करते हुये अपना सर्वस्व बलिदान कर दिया।

मंडला-डिण्डौरी जिले के स्वतंत्रता संग्राम के वीर नायक- नायिकाओं में रामगढ़ की रानी अवंतीबाई का नाम शीर्ष पर है और बड़े सम्मान के साथ उनके शौर्य और साहस की सराहना की जाती है। उन्होंने महारानी लक्ष्मीबाई का उदाहरण भी सामने रखा था।

रामगढ़ डिण्डौरी जिले की पहाड़ियों पर स्थित एक छोटा सा सुन्दर नगर था, जहाँ से गढ़ा-मंडला के राजाओं के अधीन एक प्राचीन सामन्त कुछ सौ ग्रामों की अपनी छोटी से जागीर पर शासन करता था।

रामगढ़ के राजाओं में अंतिम शासक लक्ष्मणसिंह था,  जिसका सन् 1850 में निधन हो गया था और उसका एक मात्र पुत्र विक्रमजीतसिंह उसका उत्तराधिकारी हुआ। उसका मस्तिष्क ठीक न होने के कारण उसे शासन करने के योग्य नहीं समझा गया तब अंग्रेज शासन द्वारा इस राज्य को हस्तगत कर लिया जाकर एक तहसीलदार की नियुक्ति कर दी गयी। राजा और उसके परिवार के भरण-पोषण के लिये वार्षिक  वृत्ति निर्धारित कर दी।

अंग्रेज सरकार का यह कदम अत्यन्त धाँधली एवं फरेबपूर्ण माना गया। यह देशी राजघरानों की मान्य परम्पराओं और सम्मान के विपरीत था। राजा लक्ष्मणसिंह की पत्नी सुयोग्य और सुविज्ञ महिला थी। उसने अंग्रेजों के इस व्यवहार का विरोध किया।

रानी ने अंग्रेजों द्वारा नियुक्त तहसीलदार को निकाल भगाया और राज्य का शासन सूत्र अपने हाथ में ले लिया। इसी बीच गढ़ा-मंडला राजवंश के राजाशंकर शाह-रघुनाथ शाह को जबलपुर में दिये गये कठोर एवं वीभत्स मृत्युदण्ड का समाचार मिला। उसने स्थानीय और आसपास के वीरों, ठाकुरों, मालगुजारों को आमंत्रित कर सहयोग माँगा। इस अत्याचार के विरोध में शó धारण करने का निर्णय लिया गया। और अपने किले की दीवार को सुदृढ़ बनवा लिया।

आकस्मिक परिस्थितियों से मुकाबला करने स्वयं अपने सैनिकों के साथ रणक्षेत्र में नेतृत्व करने निकल पड़ीं। एक के बाद एक हमले होते रहे। कभी जीत, कभी हार – अंततः अंग्रेजों के शिविर पर हमला घातक सिद्ध हुआ। गौरवशाली परम्परा का निर्वाह करते हुये बंदी बनने की अपेक्षा तलवार से स्वयं अपने ऊपर  वार कर मरण को प्राप्त किया।

रानी ने रणक्षेत्र में अन्तिम क्षण तक मुकाबला करते हुये वीरगति प्राप्त की। घायलावस्था में अकेली पड़ गयीं। घायरल रानी से जब अंग्रेज अधिकारियों ने पूछताछ की तो रानी ने स्पष्ट रूप से कह दिया था कि जनता को विद्रोह के लिये मैंने ही उकसाया था, हमारी जनता पूरी तरह से निर्दोष है।

रानी अवंतीबाई की इस स्वीकारोक्ति से पता चलता है कि वे अपनी प्रजा के प्रति कितना प्यार-दुलार रखती थीं। रानी के इस बयान के परिणाम स्वरूप हजारों प्रजा-जनों की फाँसी की सजा से मुक्ति मिल सकी थी। अंतिम क्षणों में दिये गये रानी अवंतीबाई के बयान से उनकी प्रजा वत्सलता का अद्भुत परिचय तो दिया ही जिसके कारण आज भी उनका सम्मान वहाँ के लोगों की पीढ़ी पर पीढ़ी बना हुआ है।

मध्यप्रदेश शासन ने वर्ष 2006 में रानी अवंतीबाई वीरता पुरस्कार आरम्भ किया था। भारतीय डाक विभाग ने सन् 1988 में रानी अवंतीबाई के नाम पर सिंगल स्टाम्प जारी किया था। बाद में सन् 2001 में भारतीय  डाक विभाग ने रानी अवन्तिबाई पर डाक टिकिट भी जारी किया था।

उत्तर प्रदेश में पी.ए.सी. की तीन बटालियन का नाम तीन वीरांगनाओं  के नाम पर रखा गया, उनमें से एक का नाम अवन्तीबाई लोधी बटालियन रखा गया। हजरत गंज लखनऊ में रानी की प्रतिमा है। शिवपुरी जिले के पिछौर बाघरौन चैराहे पर एक प्रतिमा है।

रामगढ़ किले के बाहर भी रानी की प्रतिमा है। फर्रूखाबाद के लालगेट पर रानी की प्रतिमा प्रस्तावित है। रामपुर के पटवाई चैराहे पर भी अवन्तीबाई की प्रतिमा लगवाने की मांग की गयी है। महारानी उत्तरप्रदेश का लोकप्रिय रानी एवं बहादुर बलिदानी बहू है।

लेखक:- डॉ. किशन कछवाहा
सम्पर्क सूत्र:- 9424744170