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विश्वव्यापी हिंदू संस्कृति -26

(भारतीय धर्मानुयायी कंबोडिया – 2)

जयवर्मन चतुर्थ का शासनकाल शक 830 से 921 माना जाता है और जयवर्मन पंचम का शक 890 से 968 तक। इन लोगों ने जयवर्मन ( प्रथम )की परंपराओं का अनुकरण करके अपने नाम को सार्थक बनाने में कुछ कसर ना रखी। भारत में कई विक्रमादित्य हुये हैं और उनने भी प्रथम विक्रमादित्य की परंपराओं का अनुकरण करने का जयवर्मनो की तरह ही प्रयास किया था। जयवर्मन (छटा) शक संवत 1004 से 1018 तक और जयवर्मन (सप्तम) 1104 से 1182 तक शासनारूढ़ रहे थे।

कंबोडिया के शासकों में सबसे अधिक सफल ,कुशल और लोकप्रिय ‘जयवर्मन’ माना जाता है। उस प्रिय नाम का अनुकरण उसके अगले वंशज भी करते रहे। अस्तु जयवर्मन द्वितीय और तृतीय भी हुए हैं। जयवर्मन द्वितीय ने आक्रमणकारियों के चंगुल में फंसे अपने देश के एक बड़े भाग को बंधन मुक्त कराया, उसे समृद्धि व सुसंगठित किया तथा अच्छी शासन व्यवस्था दी। इसका शासनकाल शक संवत 724 से 802 तक रहा है। इसने भारत से हिरण्यदास नामक एक विद्वान ब्राह्मण को बुलाया, जिसके वंशज कई पीढ़ियों तक राज-पुरोहित रहे। जयवर्मन तृतीय का शासनकाल 854 ई. से 877 ईसवी तक माना जाता है । यह विष्णु भक्त था। वर्मन वंश की रानियां भी राजकीय तथा धर्म प्रयोजनों में उत्साह पूर्वक भाग लेती रही थी।

सन 877 से लेकर सन 1000 तक बर्मन वंश के कोई 7 राजा सिंहासनारूढ़ हुए। इस अवधि में कंबोडिया की राजकीय तथा धार्मिक प्रगति उत्साहवर्धक गति से आगे बढ़ी। उन्होंने अपने देश की सीमा का विस्तार दक्षिण चीन तक पहुंचा दिया तथा साथ ही धार्मिक प्रसार -प्रयासों को भी भरपूर बढ़ावा दिया। इंद्रबर्मन ने कई भव्य मंदिर बनवाए और इंद्रतड़ाग खुदवाया। यशोवर्मन ने महाकाव्य पर एक टीका स्वयं लिखी। शिवपुरी में एक महाविद्यालय खुलवाया। कितने ही आश्रम बनवाए। हर्षवर्मन का बनाया हुआ मंदिर ‘नाम वकैंक ‘ की पहाड़ी के समीप है । इस अवधि में त्रिभुवनेश्वर स्वामी- शिवसोंम आदि विद्वानों द्वारा धर्म विस्तार के लिए किए गए अथक प्रयास भी उल्लेखनीय है। उन दिनों शैव और बौद्ध धर्म की अच्छी प्रगति हो रही थी और उन्हें कंबोडिया निवासी अपनी रुचि के अनुकूल अपनाते रहे हैं।

यशोवर्मन 910 ईसवी में स्वर्गवासी हुए। उनके उपरांत राजेंद्रबर्मन और जयवर्मन (पंचम) का नाम आता है। सन 1002 में सूर्यवर्मन (प्रथम) का शासन था। सन 1049 में उसका पुत्र उदयादित्य वर्मन सिहासनारुढ़ हुआ। सूर्यवर्मन (द्वितीय) 1112 में गद्दी पर बैठे । कंबोडिया का अंतिम हिंदू राजा जयवर्मन (सप्तम) था। 13वीं सदी में श्याम के राजा उस पर भारी आक्रमण करने लगे थे । सोलवीं शताब्दी में इन आक्रमणकारियों का आधिपत्य भी हो गया। तब से अब तक स्यामी राजाओं के बौद्ध धर्मानुयायी वंशज उस देश पर राज कर रहे हैं।

कंबोडिया में पहले वैष्ण धर्म पहुंचा था। पीछे वौद्ध धर्म गया। वहां दोनों का अच्छा समन्वय दिखाई देता है। भाषा में संस्कृत शब्दों की भरमार है। साहित्य में रामायण, महाभारत आदि भारतीय पुराणों की कथाओं का बाहुल्य है। पूजा-उपासना, कर्मकांड एवं प्रथा परंपराएं भारत से मिलती-जुलती हैं। स्वर और व्यंजनों का क्रम भी वैसा ही है। मंदिरों तथा ऐतिहासिक स्थानों में उपलब्ध मूर्तियों, भित्ति, चित्रों ,शिलालेखों से भारत में प्रचलित परंपराओं का भली प्रकार दिग्दर्शन होता है और लगता है यह देश सांस्कृतिक दृष्टि से अभी भी भारत का ही अविच्छिन्न अंग है।

कंबोडिया में चौदवी सदी का बना ईश्वरपुर में एक मंदिर है, जिसमें रावण द्वारा कैलाश पर्वत हाथों पर उठाए जाने की प्रतिमा है । हेम श्रंगगिर नगर के मंदिरों में हनुमान के कंधे पर बैठे राम और सीता की अग्नि परीक्षा के भव्य चित्र हैं।

शिव, विष्णु ,कार्तिकेय, गणेश, शालिग्राम, सूर्य ,दुर्गा ,भवानी ,भगवती, चतुर्भुजा, सरस्वती ,गंगा , इंद्राणी आदि की प्रतिमाएं ,स्तुतियां ,स्थापना एवं उनके लिए बने देवालयो के भी अनेकों प्रमाण उपलब्ध हैं। कई जगह तो इन देवी-देवताओं की तथा उस प्रदेश के स्थानी देवताओं की मूर्तियां अभी भी स्थापित और पूजित हैं । पीछे राजा लोग अपने को तथा अपने पूर्वजों को भी देवता सिद्ध करने के लिए अपनी मूर्तियां भी बनवाने लग गए थे उनका भी पूजन स्तवन होने लग गया था। कुलदेवी और कुलदेवताओं का प्रचलन इसी प्रकार बढ़ गया। राजवंश के ख्याति नाम लोग प्रजाजनों द्वारा पूजे जाने लगे।

प्राचीन कंबोडिया में समय-समय पर संपन्न हुए विशालकाय यज्ञानुष्ठानो का भी वर्णन मिलता है। सम्राट ईशान बर्मन, हर्षबर्मन और राजेंद्रबर्मन अपने- अपने समय के यज्ञो के होता (यजमान) बने थे। सूर्यवर्मन ने लक्ष्य होम तथा कोटि होम किए थे और पुरोहितों को विपुल दक्षिणा दी थी। मध्यदेश नामक एक महिला द्वारा भी एक विशाल यज्ञ कराया गया था। उन दिनों ऋषियों तथा तपस्वियों की कमी नहीं थी, इस क्षेत्र में नर और नारी समान रूप से प्रवेश करते थे। मिन्नानल महीधार नामक पुष्प- तपस्वीयो तथा उमा, इन्द्रा नामक साधिकाओ का शिलालेखों में चमत्कारी वर्णन मिलता है।

बौद्ध धर्म कंबोडिया में हिंदू-धर्म का एक अंग बन कर ही रहा। उसकी ब्राह्मण धर्म से ना तो पृथकता थी और ना प्रतिस्पर्धा वरन् प्रचलित अनेक पंथ- संप्रदायों की तरह बौद्ध धर्म भी हिंदू समाज का अभिन्न अंग बन कर रहा और एक ही उद्यान में हुए अनेक वृक्षों की तरह वह भी समान रूप से पोषण पाता रहा और फलता-फूलता रहा।

उस काल में वहां वेद- शास्त्र के ज्ञाता एवं यज्ञ आदि कर्मकांडों में निष्नाणां विद्वान ब्राह्मणों की अच्छी संख्या थी। संस्कृत भाषा का प्रचलन था। प्राचीन पुस्तकों तथा शिलालेखों में संस्कृत भाषा का ही प्रयोग हुआ है। हस्तलिखित पुस्तकों में प्राय: भारत में प्रचलित धार्मिक पुस्तकों के ही अंश हैं। साहित्य, कला, चिकित्सा, तंत्र, नीति आदि पर जो ग्रंथ मिले हैं, उन्हें एक प्रकार से भारतीय साहित्य की ही अनुकृति कह सकते हैं  ब्राह्मी लिपि का भारतीय वर्णमाला के अनुकूल प्रयोग होता था।

यशोवर्मन के शासनकाल में 100 महाविद्यालयों में उच्च कोटि की शिक्षा व्यवस्था का उल्लेख है। इनके साथ मंदिरों और पुस्तकालय भी रहते थे। अन्य शासकों के शासनकाल में विद्यालय तो थे पर उनकी संख्या का विवरण नहीं मिलता। उच्च कक्षाओं को पढ़ाने वाले उपाध्याय और छोटी कक्षाओं को पढ़ाने वाले अध्यापक कहे जाते थे। प्राध्यापकों में सामशिव, शंकर स्वामी, विनय पंडित ,जयमाला ,जयेंद्र , फलप्रिय, योगेश्वर, अगस्त्य , सर्वज्ञ मुनि, जय महाप्रधान, केशव आदि का गौर्वस्पद उल्लेख है। अध्यापिकाओ में जनपदा, राजदेवी, तिलका, इंदिरा देवी, जयराज देवी आदि के नाम आते हैं। इनमें से कुछ तो राज परिवारों से संबंधित थी।

फ्रांसीसी इतिहासकार कोड बार्थ तथा बरगन के कंबुज तथा चंपा के संस्कृत लेख संकलन में कंबोडिया के प्राचीन इतिहास पर अच्छा प्रभाव डाला गया है। इन विद्वानों ने उपलब्ध अवशेषों तथा लेख उदरर्णो का हवाला देते हुए जो निष्कर्ष निकाले हैं वे यही सिद्ध करते हैं कि- ” कंबोडिया प्राचीन काल में एक प्रकार से छोटे भारत की स्थिति में था। वहां भारतीय धर्म और संस्कृति का ही पूरी तरह आधिपत्य था।”

– डॉ. नितिन सहारिया