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सृजनात्मक आज़ादी की आड़ में सनातन आस्था का उपहास:आदिपुरुष

500 करोड़ के भव्य बजट से निर्मित अब तक की सबसे महंगी भारतीय फिल्मों में शुमार आदि पुरुष अपने आप में एक विवादास्पद तमाशा बनकर रह गई है। इस फिल्म के निर्देशक ओम रावत है और संवाद मनोज मुंतशिर शुक्ला ने लिखे हैं। इस फिल्म में जिस प्रकार से हमारे धार्मिक चरित्रों का प्रस्तुतीकरण हुआ है वह अत्यंत बेहूदा होने के साथ ही चिंताजनक भी है। चिंताजनक इसलिए कि इस देश में यही के लोगों के द्वारा किस तरह हमारी आस्था से, मान्यताओं से खिलवाड़ किया जा रहा है और गजब की बात यह है कि यह लोग इस तरह की हिम्मत कहां से लाते हैं। दूसरी चिंता यह है कि हर बार इनके निशाने पर हिंदू धर्म ही क्यों होता है? हिंदू धर्म के देवी देवता ही क्यों? क्यों हर बार हिंदू धर्म और सनातन परंपरा और आस्था से खिलवाड़ ही इनका विषय होता है? यह बात भी चिंता में डालती हैं। इंटरवल तक फिल्म में सुंदरकांड चलता है फिर लंका कांड और पूरी फिल्म अपने आप में एक घटिया कांड बन कर रह जाती है सनातन धर्म व आस्था के खिलाफ।

फ़िल्म के संवाद अत्यंत बेहूदा है, स्तरहीन है। फिल्म के टीजर को देखकर ही लोगों ने काफी हो- हल्ला मचाया था परंतु इस सबके बावजूद निर्देशक ओम राउत ने फिल्म में अपना ही दिमाग चलाया और प्रदर्शित फ़िल्म में किसी तरह का फेरबदल नहीं दिखाई देता। टीजर के ग्राफिक्स, स्पेशल इफेक्ट भी वैसे के वैसे हैं।

इस फिल्म में राम कहीं भी राम नहीं लगते बल्कि प्रभास बाहुबली का ही तृतीय संस्करण लगते हैं। 3 घंटे की फिल्म में भगवान राम के वनवास से रावण वध तक की कथा में रचनात्मक आजादी का इतना भयानक इस्तेमाल किया गया है कि चरित्रों के स्वरूप के साथ मनमाने प्रयोग कर उन्हें विकृत,अशोभनीय बना दिया गया है। तथ्यों से छेड़छाड़ कर सीता की जन्मस्थली ही बदल दी गई जिससे नेपाल में फ़िल्म बैन कर दी गई। 3 डी व वीएफएक्स का इतना घटिया और भद्दा प्रयोग इससे पहले कहीं नहीं देखा। आदि पुरुष जैसी घटिया, बेहूदा फ़िल्म हमारी युवा पीढ़ी को क्या परोस रही है यह भी सोच का विषय है। क्या हमारी नई युवा पीढ़ी प्रभु श्री राम, लक्ष्मण सीता, हनुमान जैसे चरित्र को इस विकृत रूप में देखेगी। हमने वह रामायण भी देखी है जिसे रामानंद सागर ने निर्देशित किया था। राम के स्वरूप में अरुण गोविल आज भी हमारे मन मस्तिष्क पर अंकित है। राम की जो छबि लोक मानस में अंकित है वह अत्यधिक सौम्य है। वे मर्यादा पुरुषोत्तम है जो अपने शत्रुओं से भी सम्मान का व्यवहार करते है। अरुण गोविल का जीवंत अभिनय, शारीरिक भाषा देखकर लगा कि यदि वास्तव में राम होते तो ऐसे ही होते। दारा सिंह ने वीर हनुमान का किरदार निभाया था जिन्हें देखकर लगता था कि हमारे वीर हनुमान भी ऐसे ही होंगे। रामायण का रावण ठहाके लगाकर हंसता जरूर था परंतु उसकी आंखों में कभी भी सीता के लिए कोई वासना नजर नहीं आई। आदिपुरुष का रावण चमगादड़ पर बैठकर आता है उसका स्वरूप भी वीभत्स है। असंख्य रंग बिरंगी लाइट वाली तलवारे उसके हाथ में दिखती है जो हॉलीवुड के थानोस की कॉपी है। आदि पुरुष का राम पूरी फिल्म में क्रोध में है ना उनके चेहरे पर राम का तेज है ना सौम्यता, ना ही शारीरिक भाषा राम के अनुसार है। वैसा ही प्रस्तुतीकरण सीता का है जो महज एक मॉडल के रूप में आई है। रामायण की लंका जो सोने की थी यहां काले रंग की है। पुष्पक विमान की जगह चमगादड़ है।

फ़िल्म के घटिया संवादो पर तो लोग बुरी तरह आक्रोशित है। संवाद जो बच्चों के कॉमिक किरदारों से भी बुरे हैं। फ़िल्म में रावण का सेनापति हनुमानजी से बोलता है “तेरी बुआ का बगीचा है क्या जो हवा खाने चला आया”।

फिल्म में भगवान राम का संदेश लेकर हनुमान जी लंका गए मेघनाथ उनकी पूंछ में आग लगाकर पूछता है ‘जली’। हनुमान जवाब देते हुए कहते हैं- “तेल तेरे बाप का, कपड़ा तेरे बाप का और जलेगी भी तेरे बाप की” इसके बाद जब हनुमान लंका से वापस प्रभु श्री राम के पास पहुंचते हैं तो राम उनसे वहां के विषय में पूछते हैं तब हनुमान जी कहते हैं- “बोल दिया जो हमारी बहनों को हाथ लगाएंगे, उनकी लंका लगा देंगे” रचनात्मक छूट के नाम पर रामायण जैसे पौराणिक कथा के पात्रों के साथ इस तरह का खिलवाड़ नहीं होना चाहिए था। आदिपुरूष में डायलॉग पर हुए विवाद पर मनोज मुंतशिर ने प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि “जिस डायलॉग को लेकर हल्ला हो रहा है उन्हें जानबूझकर ऐसा लिखा गया है जिससे आजकल के लोग और बच्चे उससे जुड़ सकें।” मतलब अब लोग, उनकी भाषा का स्तर ऐसा ही गया है कि हम स्तरीय भाषा से जुड़ नही पाएंगे। क्या तर्क है।

फिल्म को लेकर कई हिंदू संगठनो और कई लोगों ने अपनी आपत्ति दर्ज की है। अखिल भारतीय संत समिति के राष्ट्रीय महामंत्री स्वामी जितेंन्द्रानंद सरस्वती ने कहा है कि “सनातन धर्म में तथ्यों से छेड़छाड़, महापुरुषों और परमात्मा का सरलीकरण करना अक्षम्य है। इस फिल्म के डायलॉग संतो को नहीं पच रहे हैं। “रचनात्मकता, अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर हमेशा से इस देश में सनातन संस्कृति धर्म, आस्था, विश्वास के साथ प्रयोग किए गए। हमारी धार्मिक कथाएं हमारे विश्वास की चीज है। हमारे लिए हमारी पौराणिक कथाए हमारी आस्था का विषय है; मनोरंजन का नहीं, पैसा कमाने का नहीं। रामानंद सागर के मन में राम के प्रति, हमारी आस्था के प्रति श्रद्धा थी ।सम्मान था अपने धर्म व राष्ट्र के प्रति जो आदिपुरुष के लेखक व निर्माता के पास नहीं है। यही कारण है कि यह फिल्म एक बेहूदा फिल्म बन कर रह गई। अगर पैसा ही कमाना है तो पौराणिक कथाओं से छेड़छाड़ क्यों आप राम की जगह किसी को भी लेकर इस तरह की फ़िल्म बना देते। कई विषय है कोई रोकने वाला नहीं पर इतना स्तरहीन प्रस्तुतिकरण राम के लिए बर्दाश्त नहीं।

राम जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाने वाले हैं। धर्म के लिए, न्याय के लिए, जनकल्याण के लिए कार्य करने वाले हैं। राम हमारे लिए महज एक पौराणिक पात्र नहीं हमारी संस्कृति का आधार है और हमारी श्रद्धा का केंद्र है। अतः अभिव्यक्ति की आजादी और सृजनात्मकता की छूट के नाम पर, मनोरंजन के नाम पर अब सनातन धर्म, सनातन संस्कृति व सनातन मान्यताओं के उपहास का विरोध होना चाहिए । हमे एकजुट होकर आवाज उठानी होगी कि हमारी धार्मिक मान्यताओं का प्रस्तुतिकरण हमारी आस्था व विश्वास के अनुरूप हो।

!! जय श्री राम !!

प्रो. मनीषा शर्मा