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स्वतंत्रता से स्वाधीनता का सफ़र अभी बांकी है

15 अगस्त 1947 को भारत ने राजनीतिक स्वतंत्रता तो प्राप्त की किन्तु स्वराज नहीं मिला। अर्थात “स्वयं का तंत्र नहीं मिला”। हम 15 अगस्त 1947 को पूर्णत: स्वाधीन नहीं हुए, बस इतना हुआ कि गोरे अंग्रेज चले गए, अब उनके प्रतिनिधि काले अंग्रेज उस गद्दी पर बैठ गए। पिछले 60 वर्षों से हम उसी “औपनिवेशिक गुलामी की मानसिकता” को ढोते चले आ रहे हैं। हमने अंग्रेजी सिस्टम को अडॉप्ट किया। वही “अंग्रेजी शिक्षा पद्धति” अंग्रेजी आई. पी .सी. , सी. आर. पी .सी. ,वही “अंग्रेजी जुडिशल सिस्टम”, वही न्यायाधीशों की नियुक्ति का “कॉलेजियम सिस्टम”, वही अंग्रेजी प्रशासनिक व्यवस्था का ढांचा ,बस ICS का नाम हमने बदल कर IAS कर दिया।

कलेक्टर जो अंग्रेजों के परगना (जिले) का ‘कर संग्रहण अधिकारी’ हुआ करता था। वह अब समस्त जिले की संपूर्ण व्यवस्था का प्रधान/डीएम अधिकारी बन गया। न्यायालय की कार्रवाई आज भी अंग्रेजी में ही होती है। वही “कमिश्नरी सिस्टम “आज भी चल रहा है। फिर बदला क्या? जबकि होना यह चाहिए था कि जैसे ही हम स्वतंत्र हुए थे। हमें अपने देश (भारत) की संस्कृति, गौरवशाली परंपरा, विरासत और हमारे यशस्वी पूर्वजों ,बलिदानियों , हुतात्माओ ने जो सपना देखा था। उसके अनुसार अपना संविधान, तंत्र खड़ा करना चाहिए था। उन गुलामी की बेड़ियों ,पराधीनता के अवशेषों से मुक्ति प्राप्त कर लेनी चाहिए थी। और ‘राष्ट्रीय चैतन्य’ के प्रकाश में भारतीय इतिहास लेखन होना चाहिए था।

देश की राजधानी नई दिल्ली में जाकर तो देखिए! क्या नजारा है? – अकबर रोड, हुमायूं रोड, शाहजहां रोड़, तुगलक रोड़, औरंगजेब रोड ,मिंटों रोड़, सराय कालेखां बस स्टेन्ड, हजरत निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन इत्यादि। ऐसा लगता है ,मानो यह भारत की नही पाकिस्तान की राजधानी है। राष्ट्रीय स्वाभिमान को ध्यान में रखकर नीतियां बनना चाहिए थी, किंतु ऐसा न हो सका। वरन हम ‘ बौद्धिक परावलंवन ‘ के शिकार होते चले गए।

पहले तो दो व्यक्तियों ने एक कमरे में बैठकर देश के विभाजन का फैसला मनमाने तरीके से ले लिया ,जो देश की जनता व हुतात्माओं के बलिदान से किया गया बड़ा विश्वासघात, वज्रपात ही था।
“विभाजन टल सकता था, बंटवारे का दर्द बहुत तीखा था। डेढ़ करोड़ से ज्यादा भारतीयों ने इस दर्द को झेला है, लगभग 20 लाख हिंदू -सिक्ख इस बंटवारे के कारण मारे गए थे। लाखों माता- बहनों की इज्जत के साथ खिलवाड़ हुआ था। अनेकों घर- बार, आशियाने उजड़ गए थे। उन मारे गए अभागे हिंदू-सिख भाइयों की लाशों पर ,माँ-बहनों की करोड़ चीख-पुकार पर, अभागे शिशुओं की वीभत्स मौत पर, हमारे तत्कालीन कांग्रेसी नेताओं की हठधर्मिता पर और तुष्टीकरण की ‘राजनीतिक नपुंसकता” पर हमारी वर्तमान स्वतंत्रता खड़ी है। विभाजन टल सकता था, यदि 1923 के ‘काकीनाडा’ कांग्रेस अधिवेशन में पं. विष्णु दिगंबर पलुस्कर के ‘बंदेमातरम’ गायन के विरोध को गांधीजी गंभीरता से लेते व मुस्लिम तुष्टीकरण ना करते।” कांग्रेश

(लेख- “विभाजन की चुभन “- 01 ,प्रशांत पोल, 11-8 -2022, vskjabalpur.org से साभार) राष्ट्रीय आंदोलन के उन दिनों देश की करोड़ों की आबादी वाला भारतीय जनमानस कांग्रेश पर आंख मूंदकर विश्वास करता था और उस समय कांग्रेश के मुख्य नेतृत्वकर्ता मोहनदास गाँधी (बापू ) व जवाहरलाल नेहरू थे।

काउंसिल के चुनाव में पी .एम. के लिए सर्वाधिक मतों से सरदार बल्लभ भाई पटेल को 13, कृपलानी को 2 व पत्टाभी सीता रमैया को 1 मत मिला था। नेहरु को एक भी वोट नही मिला। किंतु बापू के आग्रह/ हठधर्मिता से सरदार पटेल ने प्रधानमंत्री का पद नेहरू के लिए छोड़ा। इसी संदर्भ मे विद्वान इतिहासकार डॉ. एम. पी. जैन अपने लेख में लिखते हैं की- “लंबे समय से कांग्रेस अध्यक्ष के पद पर रहे मौलाना आजाद की जगह नया अध्यक्ष चुना जाना था और वही पार्टी का प्रमुख नेता होने से अंतरिम प्रधान मंत्री बनने वाला था। 15 में से 12 प्रांतीय समितियां सरदार पटेल को अध्यक्ष बनाए जाने के पक्ष में थी और शेष में से दो ने आचार्य कृपलानी और एक ने पट्टाभी सीतारमैया का नाम प्रस्तावित किया। (उस समय प्रांतीय समितियों द्वारा कांग्रेस अध्यक्ष चुने जाने की परंपरा थी)। किंतु गांधीजी (संभवतया नेहरू के अंग्रेजों के चहेते होने से सत्ता हस्तांतरण को सुगम बनाने के लिए) का नेहरू की ओर झुकाव था। उनके प्रभाव से ( because of match fixing, गांधीजी ने नेहरू के पक्ष में veto power का उपयोग किया। ऐसा ही 1929और 1937में भी हुआ था। राजेंद्र प्रसाद ने इस कृत्य के बारे में टिप्पणी की (“Gandhi has once again sacrificed his trusted lieute nant for the sake of glamorous Nehru”) कार्य समिति ने नेहरू के नाम को स्वीकृति दी। इसके बाद। गांधीजी ने पार्टी हाई कमान द्वारा प्रांतीय समितियों के निर्णय को अस्वीकार किए जाने की अप्रजातान्त्रिक परंपरा की शुरुआत की।” (डॉ. एम. पी. जैन, उदयपुर के लेख से साभार) बस यहीं से देश का भाग्य व भविष्य बदलना प्रारंभ हुआ।

आजादी के पश्चात इतिहास परिषद के गठन व इतिहास लेखन की बात आई तो के. एम. मुंशी के नेतृत्व में प्रस्ताव लेकर नेहरू के पास गए व अनुमोदन करने का आग्रह किया और कहा कि – हम देश के इन विद्वानों, इतिहासकारों के साथ मिलकर भारत का राष्ट्रवादी इतिहास लेखन करना चाहते हैं, आप अनुमति दीजिए। तब नेहरू ने इंकार कर दिया। बाद में एक एजेंडे के तहत, कुछ खास लोगों की समिति (परिषद) बनाई गई व उस समिति के बनाने के लिए भी एक खास ऐजेंडे की समिति बनी, तब फिर किस प्रकार से देश के इतिहास के साथ छल-प्रपंच ,बेईमानी हुई। विकृत इतिहास लेखन किया गया ,गुलामी की मानसिकता को पढ़ाने -दर्शाने वाला ‘औपनिवेशिक मानसिकता’ वाला इतिहास देश पर थोप दिया गया। पराधीनता ,गुलामी का इतिहास जिसमें अंग्रेजों व मुगलों की श्रेष्ठता एवं भारतीय गौरवशाली पक्ष को दबाया गया। उसे देश की पीढ़ियों पर थोप दिया गया। आजादी के पश्चात इतिहास परिषद की कमान वामपंथियों को सौंप दी गई ,जो अंग्रेजी पराधीनता व पाश्चात्य विचारधारा के पोषक थे । जिन्होंने एक विदेशी अंग्रेज ‘ जेम्स मिल ‘ के द्वारा लिखा हुआ इतिहास – ऐन्शियंट- मिडिवल व मॉडर्न हिस्ट्री के रूप में देश पर थोप दिया। ” जिसमें भारत है ही नहीं ” जो भारतीय संस्कृति व प्रकृति दोनों के विरुद्ध था । जेम्स मिल एक ऐसा अंग्रेज व्यक्ति था ,जो ना कभी भारत आया, जो न भारत को जानता है ,न जिसे भारत की भाषा- हिंदी आती थी और उसने भारत का इतिहास ,इंग्लैंड में बैठकर लिख दिया। यह एक प्रकार से देश के भविष्य के साथ ‘प्रज्ञा अपराध’ षड्यंत्र ही था। जिसका नुकसान 70 वर्ष तक देश ने झेला।

ब्रिटिश प्रधानमंत्री ऐटली से जब पूछा गया कि आपने भारत क्यों छोड़ा ,तब ऐटली कहते हैं कि – “आई. एन. ए. व सुभाष चंद्र बोस के कारण। जिस सेना के बल पर हम भारत पर हुकूमत करते आए हैं अब वही सेना हमसे विद्रोह कर रही है।”

कांग्रेस का योगदान अंग्रेजी हुकूमत को भगाने में कमतर (Minmum) है। क्योंकि 1942 का भारत छोड़ो आंदोलन 1943 तक समाप्त हो चुका था। कोई प्रभाव शेष नहीं रहा था, फिर 4 वर्ष पश्चात अंग्रेजों ने भारत छोड़ने का निर्णय क्यू लिया? इसकी मूल वजह INA ‘इंडियन नेशनल आर्मी’ व सुभाष चंद्र बोस थे। इस INA ने रंगून से भारत में प्रवेश करके अंग्रेजी सरकार से युद्ध छेड़ दिया व 26 हजार के लगभग अंग्रेजो को मारा-काटा था। जिसमें आई. एन. ए. के 25000 के लगभग भारतीय सैनिकों का भी बलिदान हुआ था। नेताजी के साथ भारतीय अंग्रेजी सेना के भारतीय सैनिकों का समर्थन व विश्वास था। वह नेताजी सुभाष चंद्र बोस को अपना आदर्श मानते थे। अतः उनके आह्वान पर ‘मुंबई नेवी’ (अंग्रेजी जल सेना) ने 18 अक्टूबर 1946 को विद्रोह कर दिया एवं इसी के साथ कराची में ‘अंग्रेजी एयर फोर्स’ व जबलपुर मध्य प्रदेश में “अंग्रेजी सिग्नल कोर” (STC) ने भी विद्रोह कर दिया। अब अंग्रेजी सरकार कि चूलें हिल गई व अंग्रेजी हुकूमत डर गई। उसे 1857 की पुनरावृत्ति की आशंका सताने लगी। देश में वातावरण गर्म हो गया व अंग्रेजी सरकार पर दबाव बन गया। तभी ब्रिटिश हुकूमत ने भारत छोड़ने का निर्णय लिया था किंतु देश में एक झूठ प्रचारित किया गया कि- “दे दी हमें आजादी ,बिना खडग- बिना ढाल” इस आजादी के लिए देश में खून की नदियां बही हैं।

15 अगस्त 2022 को लाल किले से ध्वजारोहण के समय लाइव प्रसारण में Zee News पर कॉमेंटेटर (प्रवक्ता) कर्नल एस . के. सिन्हा कहते हैं कि- “1757 से 1947 तक 3.5 करोड़ भारतीयों के बलिदान के पश्चात यह आजादी मिली है।” अतः हम चिंतन कर सकते हैं कि इतने वर्षों से देश के साथ यह क्या चल रहा था ?

नेताजी सुभाष चंद्र बोस का देश की आजादी में ‘लीडिंग रोल’ (भागीरथी प्रयास) रहा है। जरा विचार कीजिए कि एक भारतीय भारत माँ को स्वतंत्र कराने विदेश जाकर जापान व जर्मनी की सरकार से मदद मांग कर सेना बनाता है” तुम मुझे खून दो – मै तुम्हें आजादी दूंगा” और अंग्रेजी सरकार का बोरिया बिस्तर बांध देता है। किंतु वीर राष्ट्रीय सेनानी के साथ ताइवान में रास्ते में षड्यंत्र होता है। हवाई दुर्घटना का हवाला दिया जाता है, उन्हे वहां से गायब करा दिया जाता है व भारत में आजादी के बाद 70 वर्षों तक उस महान आत्मा का नाम अंग्रेजों के ‘युद्ध बंदियों’ की सूची में दर्ज रहता है।

65 साल तक नेताजी के वंशजो के घर की जासूसी करवाई जाती है आखिर क्यों? किसे नेताजी के आने से भय था? किवदंती है कि- नेताजी ने उत्तराखंड के किसी आश्रम में ‘गुमनाम बाबा’ के नाम से अपना जीवन व्यतीत (काटा) किया था। जिस नेताजी का चित्र वास्तव में देश की मुद्रा (नोट) में छपना चाहिए था वह एक ‘गुमनाम हीरो’ Forgotten heros मात्र बनकर रह गए। यही इस देश का दुर्भाग्य है किंतु अभी वर्तमान की मोदी सरकार ने दुर्भाग्य को सौभाग्य में बदलने हेतु आवश्यक कदम उठाते हुए ,नेताजी की मूर्ति अब दिल्ली के ‘इंडिया गेट’ पर स्थापित की है।

दिल्ली में देश की हुतात्माओं के सम्मान में ‘वार मेमोरियल’ (युद्ध स्मारक) बनाया गया है। जिसको देखकर लगता है कि अब भारत “एक भारत – श्रेष्ठ भारत” बनने की राह पर द्रुत गति से अग्रसर है। एवं देश के माथे पर लगे सभी कलंको को धोकर भारत विश्व पटल पर ‘वैश्विक महाशक्ति’ (विश्वगुरु) बनने की राह पर है। अब यही भारत की नियति भी है।

आजादी का अमृत महोत्सव आया ही इसलिए है कि जो सत्य अभी तक दबाए गए ,अनदेखी किए गए गुमनाम देशभक्त, जिनका इतिहास में नाम दर्ज नहीं किया गया, सिलेबस में जिन्हें स्थान नहीं दिया गया उन ‘अनसंग हीरोज’ अनिर दृष्ट: -अविज्ञात वीरों को स्मरण करते हुए उचित सम्मान, इतिहास में स्थान दिया जाए अर्थात उल्टे को उलटकर सीधा किया जाए। जिन घटनाओं को इतिहास में उल्लेख नहीं किया गया ,उनको खोज कर इतिहास के सिलेबस में स्थान दिया जाए। जो विगत वर्षों से देश के कम्युनिस्ट (विशेष विचारधारा) के दरबारी इतिहासकारों ने ‘प्रज्ञा अपराध’ किए थे उन्हें सुधारते हुए, इतिहास के साथ न्याय किया जाए, यही इस अमृत महोत्सव का वास्तविक लक्ष्य है। इसमें विष व अमृत दोनों ही निकल रहा है। अब “दूध का दूध व पानी का पानी” हो रहा है।

अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि आजादी का 75 वा अमृत महोत्सव ही क्यों मनाया जा रहा है? जबकि “25 वां या 50 वां आजादी का अमृत महोत्सव” भी आया था देश मे। जिसे क्यों नहीं मनाया गया? यही तो यक्ष प्रश्न है जिस पर हम सब देशवासियों को चिंतन करने की आवश्यकता है। अर्थात इसके पूर्व आजादी की उपरोक्त दोनों महोत्सव क्यों नहीं मनाए गए? क्यों अंग्रेजीयत को भारतवर्ष के समाज पर थोपा गया? क्यों शहीदों के साथ विगत 60 वर्षों तक न्याय नहीं किया गया? अब देश जाग रहा है, करवट ले रहा है व सत्य को पहचान भी रहा है। ऐसे में अब देश के साथ अन्याय करने वालों, भारत माता को सताने वालों की अब खैर नहीं । उनसे समय अब हिसाब ले रहा है। कहते हैं- “ईश्वरी विधान में देर है अंधेर नहीं।”

        लेख़क
डॉ. नितिन सहारिया
8720857296