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हिन्दुत्व भारत की आत्मा – डाॅ. किशन कछवाहा

‘‘हिन्दू’’ नाम की उत्पत्ति भारतीय औरे वेदों से होने के कारण वेदों जितनी ही प्राचीन है। प्रख्यात विद्वान पं. माधवाचार्य ने ‘‘हिन्दू’’ शब्द की उत्पत्ति ‘‘सिन्धु’’ शब्द से होने का उल्लेख किया है। जिसके कतिपय प्रमाण (1) नेता सिन्धुनाम् (ऋग्वेद 7.5.2) सिन्धुओं का नेता (2) सिन्धुपति क्षत्रिया (ऋग्वेद7.64.3 सिन्धुपति क्षत्रिय) (3) सिन्धोर्गभोसि विद्युतां पुष्पम् (अथर्ववेद 19.44.5) हे जन! तू सिन्धु का गर्भ है। अर्थात् तेजस्वी जनों का पोषक है। आदि आदि।

आज भी लोग पंजाब, हरियाणा आदि क्षेत्रों में ऐसे ही मिले जुले शब्दों का प्रयोग परम्परा से करते चले आ रहे हैं। ग्रीक, हिबू, अरबी और चीनी शिलालेखों जो अतिप्राचीन माने जाते हैं, में हिन्दू शब्द का उल्लेख उपलब्ध होता है। चीनियों ने ‘‘हिन्दू’’ की जगह ‘‘शिन्टू’’ का उपयोग किया है। पैगम्बर के जन्म से हजारों साल पहले 1700 वर्ष पूर्व याने (1000ई0पू) लावी बन अरवताव बिनतूफा ने अपनी कविता में ‘‘हिन्द और हिन्दतुन’’ शब्द का उपयोग किया है।

इस झूठ को अस्तित्व प्रदान करने की कोशिशें की गयीं कि ‘‘हिन्दू’’ नाम आठवीं सदी के ईरानी मुसलमानों द्वारा दिया गया है। यह प्रयास सरासर तथ्यों की दुराग्रहपूर्ण अवहेलना करना ही है। ‘‘हिन्दू’’ शब्द के आदि स्त्रोत हमारे पवित्र धर्म ग्रंथ ही हैं।

हिंदुत्व की सार्थक व्याख्या - Uday Bulletin

हिन्दू जीवन-हिन्दू जीवन से तात्पर्य है, प्राणों के साथ, व्यक्ति में स्वाभिमान, स्वास्थ्य, निर्भयता, आत्मसम्मान, उत्साह, अरवेद एवं आत्मग्लानि आदि गुणों का होना।

न क्रोध, न ईष्र्या, न छल। दूसरे मूर्खता करते हैं उसका अनुसरण करने की क्या आवश्यकता? अपना मुँह उजला और हाथ स्वच्छ रखों। दूसरे किस तरह रहते हैं और क्या करते हैं, यह सोचने के लिये दुर्जनों के समुदाय में मत जाओ। यह जीवन बना है, विश्वास से, सद्गुण शीलता से, ज्ञान से, संयम से, धैर्य से, भक्ति से मातृत्व प्रेम और सेवा से।

वर्तमान परिस्थितियों को देखकर कोई प्रश्न कर सकता है कि क्या हमने श्रृद्धा और विश्वास को खो दिया है? राजनैतिक तथा सामाजिक क्षेत्र में जीवन को संशयग्रस्त नहीं बना लिया है क्या? तब निश्चय ही हमारा ध्यान गोस्वामी तुलसीदास जी तरफ ही जायेगा- इस प्रश्न का जबाव खोजने। तुलसी ने श्रृद्धा और विश्वास को ही सर्वोपरि मानकर रामकथा लिखी है और भारतीय संस्कृति को प्राणवायु दी है।

भारत, भारतीय और भारतीयताइस पावन धरती पर सिर्फ एक ही देश है जिसे ‘‘पुण्यभूमि’’ शब्द से अलंकृत किया जा सकता है; क्योंकि यहाँ क्षमा, धैर्य, दया, शुद्धता आदि संस्कृतियों का सर्वाधिक विकास हुआ है, यहाँ आध्यात्मिक तथा आत्मा-वेषण संबंधी ज्ञान को धरातल पर उतारा गया है। इसी तरह भारतभूमि को धन्य, और ‘‘पुण्यभूमि’’ कहा जा सकता है।

इसकी संस्कृति- संस्कारों को अपने व्यक्तित्व में समेट कर रखने वाले ही भारतीय हैं, और यही भारतीय जब अपने आचरण व्यवहार से अपने देश की पावन संस्कृति और संस्कारों को अभिव्यक्ति देते हैं, तब भारतीयता पोषित होती है, विकसित-पल्लवित होती है।

धर्म के मर्म की सही समझ न होने के कारण की महाभारत युद्ध का अवसर भी आया, जिसमें रक्त संबंध वाले परिवार के लोग रक्त पिपासु बन गये थे। प्रथम और द्वितीय युद्ध (विश्वयुद्ध) में दोनों पक्षों के लोग ईसाई ही तो थे।

भारत भूमि को ‘‘स्वर्गादपिगरीयसी’’ कहने का तात्पर्य यही है कि उसके अपने कुछ मौलिक निर्धारण और चिन्तन- मनन-व्यवहार के सुप्रयास थे। इनमें सर्वाधिक कल्याणकारी यह था कि जो कुछ भी प्राप्त किया जाये, उसे बिना अपने-पराये का भेदभाव कि ये बिना बाँटा-बिखेरा जाये। इस पावन-उदारभावना से किये गये विभाजन-वितरण में विशेषतया अधिक जरूरत मंदों को प्राथमिकता देने की नीति का पूरा पूरा ख्याल रखा जाये।

संस्कृति तो किसी राष्ट्र की आत्मा होती है, जैसे आत्मा के शरीर छोड़ देने से यह शरीर मृत हो जाता है, वैसे ही किसी राष्ट्र की संस्कृति के नष्ट होने से वह राष्ट्र भी मृत हो जाता है। देश में रहने वाले पूरे समाज की एक संस्कृति होगी।

कोई समाज किसी देश में जब लम्बे समय तक एक समाज के रूप में रह लेता है, तो उसमें कुछ विशेषतायें उत्पन्न हो जाती हैं। ये विशेषतायें उस समाज की पहचान भी बन जाती है और समाज जीवन का आधार भी बन जाती है। इन्हीं विशेषताओं को संस्कृति कहते हैं।

इन तमाम बुनियादी तथ्यों को समझें बिना हिन्दूधर्म और हिन्दुत्व पर हमले किये जा रहे है। सिर्फ सत्ता की लालच और वोटों की चाहत से उत्पन्न निर्रथक आक्रोश के सिवा क्या माना जाना चाहिये। इन मुँहफट ईष्र्यालु विपक्षी मानसिकता वाले अपनी कथित विद्वत्ता का जबतब बखान करने वालों से यह प्रश्न भी पूछा जा सकता है कि क्या उन्हें हिन्दू धर्म और हिन्दुत्व के संबंध में वास्तविक जानकारी प्राप्त करने के लिये उसके वेदों, उपनिषद, स्मृति एवं पुराणों का अध्ययन करने का समय मिला है। इन्हें उनके सम्भवतः नाम भी पता नहीं होंगे? जो उनके बयान-वक्तव्य सामने आते हैं, उससे वे स्वयं हँसी के ही पात्र बनते हैं।

देश के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा भी यह तथ्य मान्य किया जा चुका है कि हिन्दुत्व एक जीवन पद्धति है।

हिन्दुत्व भारत की आत्मा है। देश के राष्ट्रपति रह चुके प्रख्यात विद्वान डाॅ. राधाकृष्णन के अनुसार हिन्दू ‘‘शब्द’’ को भगिनी निवेदिता, एनी बेसेन्ट जैसी विदेशी महिलाओं ने अपना कर धार्मिक, सामाजिक एवं राजनीतिक क्षेत्रों में अपना विशिष्ट योगदान भी दिया था। सिद्धान्त रूप से हिन्दुत्व समस्त विश्वासों और उपासनाओं के साथ कोई भेदभाव नहीं बरतता।

जो भी यहाँ का निवासी है और जिसकी श्रृद्धा इस पवित्र मातृभूमि के प्रति है, वह हिन्दू है। हिन्दुत्व को किसी विशेष पूजा पद्धति के साथ नहीं जोड़ा जा सकता। भारत में हिन्दुत्व को लेकर किसी भी तरह का उन्माद स्वीकार्य नहीं हो सकता। हिन्दूत्व पर ज्ञान बाँटने वाले विरोधीजन अपना ज्ञान अपने पास ही रखें। क्योंकि हिन्दुत्व एक जीवन पद्धति है।

सनातन परम्परा में ‘धर्म’ का आशय अंग्रेजी शब्द ‘रिलीजन’ शब्द का पर्याय नहीं है, वरन् कतिपय मायने में उससे अधिक व्यापक अर्थ लिये हुये है। पाश्चात्य दर्शन में इहलोक की सत्ता पर ही आस्था टिकी हुयी है, जबकि भारतीय दर्शन परलोक के प्रति भी अपनी आस्था प्रगट करता है, जहाँ मृत्यु के उपरान्त आत्मा का गमनागमन होता है।
मतांतरण अमानवीय है।

सैद्धान्तिक और मौलिक व्याख्याओं से यह सिद्ध होता है कि आध्यात्मिक आस्थाओं का मौलिक स्वस्थ भौतिक कर्मकांड के माध्यम से परिवर्तित नहीं किया जा सकता। फिर प्रश्न यही उपस्थित होता है कि इस्लाम और ईसाई संप्रदाय अन्यान्य मान्यताओं के अनुयायियों के मतांतरण की मुहिम में क्यों लगे हुये हैं? इसके लिये वे धन, छल-कपट के तमाम प्रपंच भी रच रहे हैं। इस्लाम के प्रचारक भारत समेत समस्त विश्व को इस्लामिक दुनिया में बदल देना चाहते हैं, यही उनका अंतिम मजहबी मकसद है। ईसाईयों का ऐसा ही मकसद था या नहीं, तो वे ही बतला सकते हैं।

छल-कपट या षड़यंत्र के माध्यम से मतांतरित सैद्धांतिक दृष्टि से हिन्दू ही रहेगा क्योंकि पूजा पद्धति, खानपान और वेशभूषा ही सिर्फ बदलेगी। उसका मूल हिन्दू स्वरूप ईसाई या मुसलमान से भिन्न ही रहेगा। यही कारण है कि लम्बा समय बीत जाने के बाद भी घर वापिसी जैसी प्रक्रिया प्रारम्भ हो चुकी है।

अतीत में संतों- महात्माओं ने प्राणों की आहुतियाँ दी हैं, अपना धर्म बदलना स्वीकार नहीं किया। आज भी मतांतरण के लिये अमानवीय हरकतें काम में लायी जा रही हैं, जिनपर चिन्तायें भी व्यक्ति की जा रही है। मिशनरीज द्वारा नये नये हथकंडे अपनाये जा रहे हैं।

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डाॅ. किशन कछवाहा