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सन् 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में भारत के प्रथम बलिदानी राजा शंकर शाह एवं रघुनाथ शाह”

भारत के हृदय स्थल में स्थित त्रिपुरी (जबलपुर) के महान कलचुरी वंश का तेरहवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में अवसान हो गया था, फलस्वरूप सीमावर्ती शक्तियां इस क्षेत्र को अपने अधीन करने के लिए लालायित हो रही थी। अंतत:इस संक्रांति काल में एक वीर योद्धा जादों राय(यदु राय) ने तिलवारा घाट निवासी एक महान ब्राह्मण सन्यासी सुरभि पाठक के भगीरथ प्रयास से त्रिपुरी क्षेत्रांतर्गत गढ़ा- कटंगा क्षेत्र जबलपुर में गोंड वंश की नींव रखी। कालांतर में यह साम्राज्य गोंडवाना साम्राज्य के नाम से जाना गया।

गोंडवाना साम्राज्य का चरमोत्कर्ष का प्रारंभ महानायक राजा संग्राम के समय हुआ। राजा संग्राम शाह के सुपुत्र दलपति शाह का विवाह कालिंजर के महा प्रतापी राजा कीरत सिंह की सुपुत्री दुर्गावती से हुआ। यह विवाह सामाजिक समरसता का अविस्मरणीय दृष्टांत है। विवाह के 6 वर्ष उपरांत ही दलपति शाह का आकस्मिक निधन हो गया और सन् 1548 में गोंडवाना राज्य की बागडोर वीरांगना रानी दुर्गावती के हाथों में आ गई। रानी दुर्गावती का समय गोंडवाना साम्राज्य की स्वर्ण युग था। एक समय अंतराल के बाद उत्तर भारत में राजनीतिक परिवर्तन हुए और पुन: मुगलों ने अकबर के नेतृत्व में मुगल साम्राज्य की उत्तर भारत में पुनर्स्थापना की।

गोंडवाना साम्राज्य की वैभव और संपन्नता को देखकर लालची अकबर ने गोंडवाना साम्राज्य को मुगल साम्राज्य में मिलाने के लिए आक्रमण हेतु सेनापति आसफ खान को भेजा। सेनापति आसफ खान के साथ रानी दुर्गावती के 6 युद्ध हुए जिनमें 5 युद्धों में रानी दुर्गावती विजयी रही परंतु छठें में युद्ध में आसफ खान के पास तोप खाना आ जाने और रानी दुर्गावती के एक सामंत बदन सिंह के विश्वासघात करने के कारण युद्ध के परिणाम विपरीत होने लगे तब रानी दुर्गावती ने 24 जून 1564 को अपने महावत के हाथों से कटार लेकर अपना प्राणोत्सर्ग किया। इसके उपरांत दलपति शाह के छोटे भाई राजा चंद्र शाह गोंडवाना साम्राज्य के राजा बने और यह साम्राज्य मुगलों के अधीन आ गया राजा चंद्र शाह की 11 वीं पीढ़ी में (चंद्र शाह, मधुकर शाह , प्रेमनारायण, हृदयशाह, छत्रशाह -हरीसिंह, केशरी शाह, नरेंद्र शाह, महाराज सिंह, दुर्जनशाह – निजाम शाह, नरहरि शाह – सुमेर शाह, शंकर शाह) राजा शंकर शाह का जन्म मंडला के किले में हुआ इनके पिता का नाम सुमेर शाह और दादा का नाम निजाम शाह था।

18 वीं शताब्दी के प्रारंभिक दशकों में भारत की राजनीतिक परिस्थितियों में आमूलचूल परिवर्तन आया और मराठाओं ने पेशवा के नेतृत्व में मुगलों से गोंडवाना साम्राज्य हस्तगत कर लिया, साथ ही सुमेर शाह मराठों के प्रतिनिधि के रूप में मंडला में राज्य संभालने थे। सन् 1804 में सुमेर शाह की मृत्यु हो गई।

सन् 1818 में गोंडवाना साम्राज्य मराठाओं के हाथ से निकल गया, अंग्रेजों ने मंडला को अपने अधीन कर लिया और मध्य प्रांत में मिला लिया। इसके उपरांत राजा शंकर शाह और कुंवर रघुनाथ शाह को पिंडारियो के साथ मिलकर बरतानिया सरकार के विरुद्ध संघर्ष करने के आरोप में उनकी रियासत का विलय करते हुए, जबलपुर में गढ़ा पुरवा के पास के 3 गांव की जागीर देकर पेंशन दे दी गई।

राजा शंकर शाह अंग्रेजों के इस दुर्व्यवहार के विरुद्ध थे और अंग्रेजों से स्वतंत्रता चाहते थे। आगे चलकर महारथी शंकर शाह और कुंवर रघुनाथ शाह ने सन् 18 57 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में तोप के मुंह से उड़कर (Blowing from a gun) संपूर्ण भारत में किसी भी रजवाड़े परिवार की ओर से प्रथम बलिदान दिया। 19वीं शताब्दी मध्यान्ह तक अंग्रेजों के अत्याचार और अनाचार चरम सीमा पार कर गए थे तथा डलहौजी की हड़प नीति के बाद भारत में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की पृष्ठभूमि तैयार हो रही थी जिसकी जानकारी राजा शंकर शाह और कुंवर रघुनाथ शाह को भी लग गई थी। जबलपुर स्थित गढ़ा पुरवा में मंडला, सिवनी, नरसिंहपुर,सागर, दमोह सहित मध्य प्रांत के के लगभग सभी रजवाड़े परिवार, जमींदार, मालगुजार के साथ 52 गढ़ों से सेनानी भी मिलने आने लगे थे।

जबलपुर कैंटोनमेंट क्षेत्र से 52वीं नेटिव इन्फेंट्री के सूबेदार बलदेव तिवारी के साथ कई सैनिक राजा शंकरशाह और कुंवर रघुनाथ शाह से से मिलने आते थे। राजा शंकर शाह एवं कुंवर रघुनाथ शाह ने अंग्रेजों के विरुद्ध शक्तिशाली संगठन तैयार कर लिया था। राजा शंकर शाह और रघुनाथ शाह ने मध्य प्रांत के रजवाडे़ परिवार जमीदारों और माल गुजारों को एकत्रित करने के लिए रोटी और कमल की जगह दो काली चूड़ियों की पुड़िया जिसमें संदेश लिखा होता था कि “अंग्रेजों से संघर्ष के लिए तैयार रहो या चूड़ियां पहन कर घर बैठो” युक्ति का प्रयोग किया था जो रजवाड़े परिवार, जमींदार और मालगुजार इस पुड़िया को स्वीकार कर लेते थे तो उसका आशय होता था कि वह अंग्रेजों के विरुद्ध संग्राम में शामिल हैं और जो स्वीकार नहीं करते थे तो यह मान लिया जाता था कि वह साथ नहीं है उनको संदेश दिया जाता था कि चूड़ियां पहन कर घर बैठो। इस तरह से मध्य प्रांत में राजा शंकर शाह वह रघुनाथ शाह के नेतृत्व में अंग्रेजों के विरुद्ध एक मोर्चा तैयार हो गया था। राजा शंकर शाह और रघुनाथ शाह का झांसी की रानी लक्ष्मीबाई तात्या टोपे तथा कुंवर साहब से भी संपर्क था।

महारथी मंगल पांडे ने 29 मार्च सन् 1857 में बैरकपुर छावनी में 34 वीं नेटिव इन्फेंट्री की ओर से सन् 1857 के स्वतंत्रता संग्राम का शंखनाद कर दिया। कानपुर लखनऊ और दिल्ली से होने वाली भयंकर घटनाओं के समाचार भी राजा शंकरशाह और रघुनाथशाह तक पहुंचे। उत्तेजित हुए राजा शंकर शाह ने भी 10 सितंबर 1857 को जबलपुर में गढ़ा पुरवा पुरवा में बैठक बुलाई और मध्य प्रांत में स्वतंत्रता संग्राम का श्रीगणेश करने की योजना भी बना ली, जिसमें मध्य प्रांत के अधिकांश रजवाड़े, जमींदार एवं मालगुजार एकत्रित हुए थे। ब्रिटिश सैन्य छावनी जबलपुर पर आक्रमण की योजना मोहर्रम के अवसर पर थी परंतु कुछ जमीदारों और माल गुजारों के अनुपस्थित होने और उचित समन्वय ना होने के कारण योजना स्थगित कर दी गई। विजयादशमी दशमी को आक्रमण करने की योजना बनायी गई। जबलपुर कैंटोनमेंट छावनी से सैनिकों का राजा शंकर शाह और रघुनाथशाह के यहां आना जाना था, इस बात की जानकारी जबलपुर के डिप्टी कमिश्नर क्लार्क को राजा शंकर शाह और रघुनाथ शाह के द्वारा निष्कासित कारिंदे से गिरधारी लाल लग गई थी। इसलिए उसने गद्दार गिरधारी लाल के साथ गुप्तचरों को साधुओं के वेश में रहस्य जानने के लिए भेजा। राजा शंकर शाह को लगा कि यह हमारे ही सहयोगी हैं, इसलिए उन्होंने सारी योजना सविस्तार गुप्त चरों को बता दी। गुप्त चरों ने सारा वृतांत 14 सितंबर 1857 को डिप्टी कमिश्नर क्लार्क को सुनाया फलस्वरूप जबलपुर कमिश्नर इरेस्किन से अनुमति लेकर लेफ्टिनेंट क्लार्क ने 20 घुड़सवार सैनिक तथा 60 पैदल सैनिकों के साथ गढ़ा पुरवा में धावा बोला तथा राजा शंकर शाह और रघुनाथशाह को गिरफ्तार कर लिया गया, इसके साथ ही दोनों की स्वरचित कविताएं और लाल रंग का रेशमी थैला जिसमें दस्तावेज और पत्र भरे थे, बरामद कर लिये गए। गिरफ्तारी करने के उपरांत उनको मिलिट्री केंटोनमेंट में रखा गया परंतु उसी रात को उन्हें छुड़ाने के लिए सूबेदार बलदेव तिवारी ने अपनी 52वीं नेटिव इंन्फेन्ट्री के साथ बलवा किया, इसलिए राजा शंकर शाह रघुनाथ शाह को कैंटोनमेंट से हटाकर रेसीडेंसी (रेजीडेंसी) में रखा गया। यहां डिप्टी कमिश्नर और दो अंग्रेज अधिकारी का न्याय आयोग बनाया गया। राजा शंकरशाह और रघुनाथशाह पर 3 दिन तक राजद्रोह का आपराधिक मामला चलाया गया और उनकी स्वरचित कविताएँ, जिसमें उन्होंने अंग्रेजी साम्राज्य के सर्वनाश की कामना माँ कालिका से की थी। उस पर गंभीर आपत्ति उठाई गई साथ ही लाल रंग की रेशमी थैली में जो देसी रजवाड़ों जमीदारों और मालगुजारों से पत्र व्यवहार किए थे उनको पढ़ा गया, जिसमें मध्य प्रांत में अंग्रेजों की सत्ता उखाड़ फेंकने कीअपील की गई थी। राजा शंकर शाह और कुँवर रघुनाथ शाह ने सारे आरोप स्वीकार कर लिए, तब न्याय आयोग ने संधि प्रस्ताव प्रस्तुत किया जिसकी शर्तें थीं – राजा शंकर शाह और कुंवर रघुनाथ शाह ईसाई धर्म स्वीकार स्वीकार करें, उन्हें एक अच्छी पेंशन दी जाएगी और वह विद्रोहियों का पता बता दें, इन शर्तों के मानने के बाद दोनों पिता-पुत्र को माफ कर दिया जाएगा, परंतु राजा शंकर शाह और रघुनाथ शाह ने यह स्वीकार नहीं किया तब न्याय आयोग ने उन्हें फांसी की सजा सुनाने का निर्णय लिया लेकिन राजा शंकर शाह रघुनाथ शाह ने न्याय आयोग से यह कहा कि हम ठग, पिंडारी, चोर, लुटेरे,डाकू हत्यारे नहीं है जो हमें फांसी दी जाए, हम गोंडवाना के राजा हैं, इसलिए हमें तोप के मुंह से बांधकर उड़ाया जाए। न्याय आयोग ने भी विचार किया की तोप के मुंह में बांध के उड़ाने से जनता में दहशत फैलेगी, इसलिए अच्छा है की तोप के मुंह से बांधकर ही उड़ाया जाए। उधर राजा शंकर शाह बुद्धिजीवी थे और वह चाहते थे कि जब सार्वजनिक रूप से उन्हें तोप के गोले से उड़ाया जाएगा तो जन आक्रोश फैलेगा और मध्य प्रांत में भयानक संग्राम होगा।

अंततः 18 सितंबर 1857 को प्रातः 11:00 बजे 33वीं मद्रास नेटिव इन्फेंट्री सहित पांच हजार सैनिकों के घेरे में रेसिडेंसी के सामने राजा शंकर शाह रघुनाथ शाह को तोप के मुंह पर बांधा गया चारों और अपार जनसमूह उमड़ आया था, दोनों पिता और पुत्र शांत चित्त होकर खड़े थे उनके चेहरों में किसी भी प्रकार के भय के लक्षण नहीं थे। लेफ्टिनेंट क्लार्क के तोप के गोले से उड़ाने के आदेश के पूर्व राजा शंकरशाह ने उस स्व रचित कविता का प्रथम छंद गाया जिसमें अंग्रेजों के सर्वनाश की प्रार्थना की थी और इसी कविता को अंग्रेजों ने अपराध का एक आधार बनाया था। इस कविता का अंग्रेजी अनुवाद जबलपुर के कमिश्नर इरेस्किन ने किया था। कविता का प्रथम छंद राजा शंकरशाह ने इस प्रकार गाया “मूंद मुख डंडिन को चुगलों को चबाई खाई, खूंद डार दुष्टन को शत्रु संघारिका,
मार अंगरेज रेज पर देई मात चंडी,
बचे नहीं बेरी बाल बच्चे संहारिका,
संकर की रक्षा कर दास प्रतिपाल कर,
दीन की पुकार सुन जाय मात हालिका,
खाय ले म्लेच्छन को झेल नहीं करो मात,
भच्छन कर तत्छन ही बैरिन को घौर मात कालिका। ”
दूसरा छंद पुत्र रघुनाथशाह ने और भी उच्च स्वर में सुनाया” कालिका भवानी माय अरज हमारी सुन,
डार मुण्डमाल गरे खड्ग कर धर ले,
सत्य के प्रकाशन औ असुर बिनाशन कौ, भारत समर माँहि चण्डिके संवर ले,
झुंड – झुंड बैरिन के रुण्ड मुण्ड झारि-झारि,
सोनित की धारन ते खप्पर तू भर ले,
कहै रघुनाथशाह माँ फिरंगिन को काटि-काटि, किलकि – किलकि माँ कलेऊ खूब कर ले “।… इसके उपरांत लेफ्टिनेंट क्लार्क ने तोप चलाने का आदेश दिया था और भयंकर गर्जना के साथ चारों तरफ धुआं भर गया राजा शंकर शाह और रघुनाथ शाह की हाथ – पांव तोप से बंधे रह गए परंतु शेष शरीर के मांस के लोथड़े और हड्डियां 50-50 गज दूर जाकर गिरीं, जिन्हें उनकी वीरांगना पत्नियों क्रमशः फूलकुंवर और मन कुंवर ने एकत्रित किया तथा कुंवर रघुनाथ शाह के पुत्र लक्ष्मण शाह ने अंतिम संस्कार किया। इस तरह से सन् 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में भारत के रजवाड़ों में प्रथम बलिदानी,जिन्हें तोप मुंह से बांधकर उड़ाया गया,वो राजा शंकर शाह और रघुनाथ शाह ही थे। चार्ल्स बाल ने द हिस्ट्री ऑफ इंडियन म्यूटिनी में लिखा है कि “राजा शंकर शाह रघुनाथ शाह को जब तोप के मुंह से बांधा गया था तब भी उनकी आंखों में दया या याचना का भाव तक नहीं था”। एक चश्मदीद अंग्रेज अफसर के हवाले से द हिस्ट्री आॅफ इंडियन इंडियन म्यूटिनी में कहा गया है कि” उनके पैर हाथ जो बांध दिए गए थे, तोप के मुंह के पास पड़े थे और सिर तथा शरीर का ऊपरी भाग सामने की ओर लगभग पचास गज की दूरी पर जा गिरे थे। उनके चेहरों को जरा भी क्षति नहीं पहुंची थी और वे बिल्कुल शांत थे।” बात यहीं खत्म नहीं हुई क्योंकि राजा शंकर शाह की सहधर्मचारिणी रानी फूलकुंवर ने मंडला में अंग्रेजों से लड़ते हुए अपना स्वयं आत्मोत्सर्ग किया।

राजा शंकर शाह और कुँवर रघुनाथ शाह के विचार फलीभूत हुए कि “हमारे इस बलिदान के उपरांत सारे मध्य प्रांत में अंग्रेजों के विरुद्ध स्वतंत्रता संग्राम छिड़ जाएगा” और वैसा ही हुआ। संपूर्ण मध्य प्रांत के अधिकांश रजवाडे़ परिवार एवं जमींदार और मालगुजारों ने अंग्रेजों के विरुद्ध स्वतंत्रता संग्राम का बिगुल बजा दिया। जबलपुर से 52वीं नेटिव इंन्फेन्ट्री के सूबेदार बलदेव तिवारी ने 700 से अधिक सैनिकों को लेकर पाटन और कटंगी को जीत लिया और अंग्रेज कमांडर मैकग्रेगर तथा जेनकिंस का वध करके अपने राजा शंकर शाह और रघुनाथ शाह का बदला लिया। इसी बीच में विजयराघवगढ़ के 16 वर्षीय युवा राजा सरजू प्रसाद ने 30 तोपों के माध्यम से मिर्जापुर रोड को बंद कर दिया और अंग्रेजों का आवागमन रोक दिया कई युद्धों के उपरांत धोखे से उन्हें पकड़ा गया परंतु उन्होंने स्वयं प्राणोत्सर्ग कर लिया।वीरांगना रानी अवंती बाई लोधी ने मंडला जीत लिया और अंग्रेजी सत्ता को अपदस्थ कर दिया। 6 युद्धों के उपरांत अपना स्वयं प्राणोत्सर्ग किया। हीरापुर के हृदय शाह और मेहरबान सिंह, बरखेड़ा के देवी सिंह ने नागपुर रोड और नरसिंहपुर रोड को बंद कर दिया जिससे अंग्रेजों का मार्ग अवरुद्ध हो गया एक लंबे संघर्ष के बाद ही अंग्रेजों को सफलता मिली। जबलपुर कमिश्नरी के सभी जमीदारों माल गुजारों और सेनानियों ने मिलकर अंग्रेजों के विरुद्ध जमकर संघर्ष किया और स्थिति पलटने लगी थी अंग्रेजों को लगने लगा था कि मध्य प्रांत उनके हाथ से निकल जाएगा परंतु अंग्रेजों की परम मित्र देसी रियासतों ने भितरघात किया अंग्रेजों का साथ दिया तब जाकर मध्य प्रांत में सन् 1857 के स्वतंत्रता संग्राम को दबाया जा सका।

राजा शंकर शाह और रघुनाथ शाह के बलिदान को कभी नहीं भुलाया जा सकता है आज भी उनकी बलिदान गाथा पर गीत और लोक गीत गाए जाते हैं। सन् 1946 में जब जबलपुर में सिग्नल कोर के 1700 सिपाहियों ने अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह किया तथा वो तिलक भूमि तलैया पहुंचे तब उन्होंने अपने नायक राजा शंकर शाह और रघुनाथ शाह को ही घोषित किया था। राजा शंकर शाह और रघुनाथ शाह की अमर बलिदान गाथा भारतीय इतिहास का वह पड़ाव है, जो चिरकाल तक भारतीयों को गर्व, गौरव और स्वाभिमान की अनुभूति कराता रहेगा, साथ ही वर्तमान और भावी पीढ़ी को स्वतंत्रता के लिए चुकाई गई कीमत का एहसास कराएगा, जिससे राष्ट्रवाद और देश भक्ति की भावना प्रबल होती रहेगी तथा यही भाव जागृत होंगे कि मैं रहूं या ना रहूं,मेरा यह भारत देश रहना चाहिए।


डॉ. आनंद सिंह राणा